Re: नारी की अभिव्यक्ति
इतने के बाद भी मैं अकेली थी। जब रातें होतीं और दूर ऊपर मिट्टी के लोथड़े टिमटिमाते, मैं सिसकती कि जैसे उस बड़े टुकड़े को घेरे कई लघु हैं, ऐसा कुछ मेरे साथ क्यों नहीं? विधाता सो गया था, उसे पता ही नहीं था। एक दिन मैं फूट पड़ी। नमी से नमक निथर जैसे सूखने लगा। मैंने जाना कि दिन में ऊपर जो आँच का गोला है, वह मेरे भीतर भी है और आग ने जन्म लिया। आग वह रसायन थी जिसने मिट्टी, पत्थर, पहाड़, बालू आदि सबमें प्रवेश किया। भीतरी आँवे में पक पक्के हुये, जीवधारी हुये।
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