Re: नारी की अभिव्यक्ति
मैंने तटबन्ध तोड़े ! विधाता को चुनौती दी, शापित हुई कि तुम्हारा अकेलापन कभी नहीं जायेगा। मैं खिलखिला उठी क्यों कि मेरे भीतर जाने कितने ऊष्मपिंड थे, कैसा अकेलापन? तब भी मैं अकेली ही रही। विधि की गढ़न समझ के बाहर थी - अकेलेपन के कई प्रकार थे! मेरी झुँझलाहट बढ़ी और तटबन्धों को तोड़ खौलता पानी हर ओर पर्वतों की ओर बढ़ चला। चढ़ता गया, आग से मुक्त हुआ, शीतल हुआ, कहीं हिम हुआ कहीं जम कर चट्टान हुआ। चेत हुआ तो मैंने पाया कि मेरे कई भाग हो गये थे – मुझसे निकलते कई नद। मैंने भूमि पर भाग्यरेखायें लिख दी थीं! जो लिखा था उसे घटित होना ही था। तुम विशेष हुये और इतने प्रगल्भ हुये कि घटित को लिखने लगे! मैंने जाना कि पौरुष क्या है। मैंने जाना कि मैं क्या हूँ और यह भी कि संसार की गति और हो गई है।
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