Re: 'काहे को ब्याही विदेश' - कहानी- उत्कर्ष राय
जनार्दन खिजला गए कि चित भी मेरी, पट भी मेरी। वैसे उन्हें खुशी भी हो रही थी कि चलो, रीना ने हामी तो भरी! भावी दामाद के रूप में सुधाकर तो उन्हें पसंद था ही। जनार्दन ने सोचा कि सुधाकर आजकल भारत गया है, उसके लौटते ही बात करेंगे।
उनकी बेसब्री बढ़ती जा रही थी। बाहर निकल कर देखा तो डाकिया पत्र डाल रहा था। पत्र-पेटी से जनार्दन ने पत्र निकाले और सरसरी दृष्टि से सारे पत्रों को देखा। उनकी दृष्टि एक विवाह-निमंत्रण पर पड़ी। ऊपर ही लिखा था 'सुधाकर नमिता परिणय'।
काँपते हाथों से निमंत्रण खोलकर पढ़ा। पढ़ते ही उन्हें लगा, जैसे हाथों के तोते उड़ गए हों।
"ललिता, रीना! यह कार्ड देखो" जनार्दन वाक्य पूरा न कर सके।
ललिता व रीना ने कार्ड पढ़कर सारा दोष जनार्दन के सिर मढ़ दिया।
जनार्दन धीरे-धीरे पुन: अपने-आपको अपने काम में व्यस्त रखने लगे।
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