Re: विदेश में हिन्दी लेखन
सोहम ने फिर से सबके गिलस भर दिए। उसे अपना वहाँ होना बड़ा अटपटा लग रहा था। उसे लगा कि वह बाहर का आदमी है। धीरे से बाहर निकल आया। संजना ने देखा, पर रोका नहीं।
केशी उसी आराम कुर्सी पर सीधे होकर बैठ गए। तिया सोफ़े के एक कोने तक सरक आई। अब वह और केशी आमने-सामने थे। इतने कि उसके सेंट की सुगंध केशी को छू गई। वही चिर-परिचित खुशबू। उन्होंने चाहने पर भी अभी तक तिया को भरपूर नज़रों से देखा नहीं था। करण तिया के पास से उठ कर संजना के पास जाकर दूसरे सोफ़े पर बैठ गया। संजना ने बिना कुछ कहे उसका हाथ अपने हाथ में पकड़ लिया - मज़बूती से। पता नहीं उसे ख़ुद इस वक्त सहारे की ज़रूरत थी या उसे लगा कि करण को सहारा चाहिए होगा।
करण ने संजना की ओर देखा, ''अब?''
संजना ने करण की ओर सिर घुमा दिया। तनी हुई गर्दन, निर्भीक दृष्टि। वह सब को खींच कर इस बिन्दु तक ले आई थी, आगे जो भी हो्गा उस घटित को झेल जाने का विश्वास।
''तुम दुबले हो गए हो।'' तिया ने ही घिसे-पिटे फ़िकरे से चुप्पी की बोझिलता हटाने की कोशिश की। उसे कुछ और सूझा ही नहीं।
''डैडी साल भर तक बीमार रहे।'' संजना का इरादा नहीं था पर बात में सूचना देने का कम और आरोप लगाने का लहज़ा आ ही गया।
तिया ने अनसुना कर दिया। ''देखो, करण कितना हैन्डसम निकल आया है?'' वह बेटे को देख कर विभोर हो उठी।
एक विद्रूप की हँसी करण के चेहरे पर फैल गई। जैसे कह रही हो, '' सिर्फ़ शरीर ही देख पा रही हो। माँ होकर भी तुम्हे मेरे अन्दर की कुरूप ग्रन्थियों का अन्दाज़ा भी नहीं। उसे भूलता नहीं वह डरावना दिन, जिस दिन डैडी बोर्डिंग स्कूल में उसे अकेले ही मिलने आए और कितने ठंडेपन से मम्मी से अलग होने की बात बता गए थे।
वही बात उसके दिमाग़ में उत्पात मचा गई। दोस्तों के साथ नशीले धुएँ में ही थोड़ी धुंधली पड़ती, नहीं तो फुंफकार मारती रहती। वह बचने के लिए जैसे अन्धेरे कुएँ में उतर रहा था। पता नहीं, पढ़ाई और अंक कहाँ विलीन हो गए। डैडी और संजू ने उस अंधेरे कुँए में झाँक लिया था। फ़ैसला हो गया, बस अब यहाँ नहीं रहना। तीनों ने स्वेच्छा से देश निकाला ले लिया।
शायद संजना भी अतीत की खाई में झाँक आई थी। अचानक उठ खड़ी हुई। तिया से बोली, ''मम्मी, अभी तो कुछ दिन आप यहीं हैं न? कल बात करेंगे।'' कह कर उसने करण का हाथ खींचा। आँख से इशारा किया, ''उठो!''
करण ने धीमे से कहा, ''गुड नाइट मम्मी -डैडी।'' एक हल्की-सी सिहरन उसके बदन से गुज़र गई। कितने सालों बाद ये शब्द ''मम्मी और डैडी'' उसके मुँह से एक साथ निकले थे। वह संजना के पीछे-पीछे ऊपर चला गया।
तिया चुपचाप केशी की ओर देखती रही। जानती है केशी शब्दों के इस्तेमाल के मामले में ज़्यादा उदार नहीं हैं।
''तुम अभी भी मुझसे नाराज़ हो?''
केशी ने पहली बार भरपूर दृष्टि से तिया को देखा। हमेशा की तरह उनके सामने बैठी, आत्म-विश्वास से भरी, मुस्कराती तिया। लगा वह यों ही अपने घर में बैठे हैं और तिया उनसे कुछ पूछने, कोई आपसी बात बताने पास आकर बैठ गई है।
वही बोलती आखें, वही खिला हुआ चेहरा, हँसती है तो और भी आकर्षक लगती है उनकी तिया।
केशी के चेहरे पर कोमलता बिखर गई।
तिया ने आराम कुर्सी के हत्थे पर पड़ी उनकी बाँह पर अपना हथ रख दिया। आँखो में नमी तिर गई, होंठ काँपे और चिबुक पर दो छोटे - छोटे बल उभरे।
''आई एम सॉरी, वैरी सॉरी। मेरी वज़ह से तुम्हें और बच्चों को जो तकलीफ़ हुई।'' वह रोने लगी।
केशी बस उसे देखते रहे। क्या कहते? कहने से होगा भी क्या?
''तुम खुश हो?'' उन्होंने अब उसकी ओर देखते हुए कहा।
''हाँ, बहुत खुश हूँ।'' तिया ने अपने को सँभाल लिया था।
केशी अपने को जान नही पाए कि वह तिया से किस उत्तर की आशा कर रहे थे। वह खुश है यह जानकर पता नहीं उन्हें अच्छा लगना चाहिए या बुरा?
''पिताजी के जाने का मुझे बहुत अफ़सोस है।'' तिया गम्भीर हो गई।
केशी की आँखो के आगे अस्पताल के बिस्तर पर, कोमा में पड़ी पिता की आकृति घूम गई।
''इस धक्के को सहने की उनमें शक्ति नहीं थी।'' शायद उन्होंने अपने से ही कहा। अस्पताल की गन्ध उनकी चेतना में उभरी और फिर धुंधली हो गई। तिया अभी भी उनकी ओर देखे जा रही थी।
''तुम कभी जाती हो चंडीगढ़?''
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