Re: ~!!आनन्दमठ!!~
सत्यादंन-चलिए मैं तैयार हूं। किंतु महात्मन्! मेरे एक संदेह को दूर कीजिए। मैंने क्या इसीलिए युद्ध-जय कर संतान-धर्म की पताका फहरायी थी?
जो आए थे, उन्होंने कहा-तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया, मुसलिम राज्य ध्वंस हो चुका। अब तुम्हारी यहां कोई जरूरत नहीं, अनर्थक प्राणहत्या की आवश्यकता नहीं!
सत्यानंद-मुसलिम राज्य ध्वंस अवश्य हुआ है, किंतु अभी हिंदु राज्य स्थापित हुआ नहीं है। अभी भी कलकत्ते में अंगरेज प्रबल है।
वे बोले-अभी हिंदु-राज्य स्थापित न होगा। तुम्हारे रहने से अनर्थक प्राणी-हत्या होगी, अतएव चलो!
यह सुनकर सत्यानंद तीव्र मर्म-पीड़ा से कातर हुए, बोले-प्रभो! यदि हिंदू-राज्य स्थापित न होगा, तो कौन राज्य होगा? क्या फिर मुसलिम-राज्य होगा?
उन्होंने कहा-नहीं, अब अंगरेज-राज्य होगा
सत्यानंद की दोनों आंखों से जलधारा बहने लगी। उन्होंने सामने जननी-जन्मभूमि की प्रतिमा की तरफ देख हाथ जोड़कर कहा-हाय माता! तुम्हारा उद्धार न कर सका। तू फिर म्लेच्छों के हाथ में पड़ेगी। संतानों के अपराध को क्षमा कर दो मां! रणक्षेत्र में मेरी मृत्यु क्यों न हो गई?
महात्मा ने कहा-सत्यानंद कातर न हो। तुमने बुद्धि विभ्रम से दस्युवृत्ति द्वारा धन संचय कर रण में विजय ली है। पाप का कभी पवित्र फल नहीं होता। अतएव तुम लोग देश-उद्धार नहीं कर सकोगे। और अब जो कुछ होगा, अच्छा होगा। अंगरेजों के बिना राजा हुए सनातन धर्म का उद्धार नहीं हो सकेगा। महापुरुषों ने जिस प्रकार समझाया है, मैं उसी प्रकार समझाता हूं- ध्यान देकर सुनो! तैंतिस कोटि देवताओं का पूजन सनातन-धर्म नहीं है। वह एक तरह का लौकिक निकृष्ट-धर्म, म्लेच्छ जिसे हिंदू-धर्म कहते हैं- लुप्त हो गया। प्रकृति हिंदू-धर्म ज्ञानात्मक- कार्यात्मक नहीं। जो अन्तर्विषक ज्ञान है- वही सनातन-धर्म का प्रधान अंग है। लेकिन बिना पहले बहिर्विषयक ज्ञान हुए, अन्तर्विषयक ज्ञान असंभव है। स्थूल देखे बिना सूक्ष्म की पहचान ही नहीं हो सकती। बहुत दिनों से इस देश में बहिर्विषयक ज्ञान लुप्त हो चुका है- इसीलिए वास्तविक सनातन-धर्म का भी लोप हो गया है। सनातन-धर्म के उद्धार के लिए पहले बहिर्विषयक ज्ञान-प्रचार की आवश्यकता है। इस देश में इस समय वह बहिर्विषयक ज्ञान नहीं है- सिखानेवाला भी कोई नहीं, अतएव बाहरी देशों से बहिर्विषयक ज्ञान भारत में फिर लाना पड़ेगा। अंगरेज उस ज्ञान के प्रकाण्ड पंडित है- लोक-शिक्षा में बड़े पटु है। अत: अंगरेजों के ही राजा होने से, अंगरेजी की शिक्षा से स्वत: वह ज्ञान उत्पन्न होगा! जब तक उस ज्ञान से हिंदु ज्ञानवान, गुणवान और बलवान न होंगे, अंगरेज राज्य रहेगा। उस राज्य में प्रजा सुखी होगी, निष्कंटक धर्माचरण होंगे। अंगरेजों से बिना युद्ध किए ही, निरस्त्र होकर मेरे साथ चलो!
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