Re: ~!!आनन्दमठ!!~
सत्यानंद ने कहा-महात्मन्! यदि ऐसा ही था- अंगरेजों को ही राजा बनाना था, तो हम लोगों को इस कार्य में प्रवृत्त करने की क्या आवश्यकता थी?
महापुरुष ने कहा-अंगरेज उस समय बनिया थे- अर्थ संग्रह में ही उनका ध्यान था। अब संतानों के कारण ही वे राज्य-शासन हाथ में लेंगे, क्योंकि बिना राजत्व किए अर्थ-संग्रह नहीं हो सकता। अंगरेज राजदण्ड लें, इसलिए संतानों का विद्रोह हुआ है। अब आओ, स्वयं ज्ञानलाभ कर दिव्य चक्षुओं से सब देखो, समझो!
सत्यानंद-हे महात्मा! मैं ज्ञान लाभ की आकांक्षा नहीं रखता-ज्ञान की मुझे आवश्यकता नहीं। मैंने जो व्रत लिया है, उसी का पालन करूंगा। आशीर्वाद कीजिए कि मेरी मातृभक्ति अचल हो!
महापुरुष-व्रत सफल हो गया- तुमने माता का मंगल-साधन किया- अंगरेज राज्य तुम्हीं लोगों द्वारा स्थापित समझो! युद्ध-विग्रह का त्याग करो- कृषि में नियुक्त हो, जिसे पृथ्वी श्स्यशालिनी हो, लोगों की श्रीवृद्धि हो।
सत्यानंद की आंखों से आंसू निकलने लगे, बोले-माता को शत्रु-रक्त से शस्यशालिनी करूं?
महापुरुष-शत्रु कौन है? शत्रु अब कोई नहीं। अंगरेज हमारे मित्र हैं। फिर अंगरेजों से युद्ध कर अंत में विजयी हो- ऐसी अभी किसी की शक्ति नहीं?
सत्यानंद-न रहे, यहीं माता के सामने मैं अपना बलिदान चढ़ा दूंगा।
महापुरुष -अज्ञानवश! चलो, पहले ज्ञान-लाभ करो। हिमालय-शिखर पर मातृ-मंदिर है, वहीं तुम्हें माता की मूर्ति प्रत्यक्ष होगी।
यह कहकर महापुरुष ने सत्यानंद का हाथ पकड़ लिया। कैसी अपूर्व शोभा थी! उस गंभीर निस्तब्ध रात्रि में विराट चतुर्भुज विष्णु-प्रतिमा के सामने दोनों महापुरुष हाथ पकड़े खड़े थे। किसको किसने पकड़ा है? ज्ञान ने भक्ति का हाथ पकड़ा है, धर्म के हाथ में कर्म का हाथ है, विजर्सन ने प्रतिष्ठा का हाथ पकड़ा है। सत्यानंद ही शांति है- महापुरुष ही कल्याण है- सत्यानंद प्रतिष्ठा है- महापुरुष विसर्जन है।
विसर्जन ने आकर प्रतिष्ठा को साथ ले लिया।
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