Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच
कविवर ! आज आपका 'टुकड़ा-टुकड़ा सच' पूरा पढ़ डाला ! साहित्य की दो धाराएं मुख्य हैं - एक यथार्थवादी और दूसरी आदर्शवादी ! आपका सृजन मुझे दूसरी धारा, और उसमें भी अत्यधिक रोमानी अनुगूंज वाला लगा ! इसमें कोई संशय नहीं है कि आपने सृजन के लिए जो धारा चुनी है, उसमें यह श्रेष्ठ है, किन्तु क्षमा करें कि, ग़ज़ल को छोड़ दें तो, कैशोर्य से मैं यथार्थवादी साहित्य पढ़ने का आदी रहा हूं, अतः मुझे इस रचना ने बहुत अधिक प्रभावित नहीं किया ! कथा में माहौल बहुत महत्वपूर्ण है, ताकि पाठक यह महसूस करे कि यह सब मेरे इर्द-गिर्द ही हो रहा है और उससे पूरी तरह जुड़ जाए, किन्तु इस कृति में आप माहौल निर्मित करने के बजाय संवादों पर अधिक जोर देते दिखे हैं ! मसलन, शुरुआत को ही लें, जहां एक युवती आत्महत्या के लिए कार के आगे आ कूदी है, वहां युवक (चंचल) और युवती (पायल) का वार्तालाप कथानक पर अत्यधिक हावी है ! मैंने यह दृश्य पढ़ते वक्त सोचा, अगर मेरी कार के आगे कोई इस तरह आ कूदा होता, तो क्या मेरा व्यवहार ऐसा ही होता ! जवाब मिला, नहीं ! मैं एक बार तो अवश्य उस पर चीखता चिल्लाता, यकीनन उसे शांत लहजे में उपदेश कदापि नहीं देता ! अर्थात मेरे विचार से, आपके इस ट्रीटमेंट से कथा एक मार्मिक दृश्य उपस्थित होने से वंचित रह गई ! दूसरे पात्रों का नामकरण बेहद फिल्मी या कहूं अविश्वसनीय प्रतीत हुआ ! ग़ज़ल, गेसू, गुलशन जैसे पात्रों को कोई भी पाठक स्वप्नमय ही समझेगा, उनसे हृदय से जुड़ना मेरे विचार से संभव नहीं है ! हो सकता है कि आपने कथा का खाका किसी फिल्म निर्माता को ध्यान में रख कर खींचा हो, यदि ऐसा है तो मेरा मानना है कि इस कृति पर एक लोकप्रिय फिल्म बन सकती है, जो कई दृश्यों में निश्चय ही स्त्रियों के रूमाल भिगोने की क्षमता वाली होगी ! इस धारा को पसंद करने वालों के लिए आपका उपन्यास निश्चय ही रोचक, पठनीय और ज़ेहन में देर तक कौंधते रहने वाला है और इस दृष्टि से आप सफल सिद्ध हुए हैं ! मेरा कोई कथन आपको अनुचित लगे, तो कृपया उसे अन्यथा नहीं लें और उसके लिए मेरी अग्रिम क्षमाप्रार्थना स्वीकार करें ! धन्यवाद !
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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