Re: अंग्रेजी क्यों रोना-धोना मचाती है ?
इस आलेख के आखिर में, मैं उस न्यूज आइटम की चर्चा करते हुए अपनी बात आगे बढ़ाऊँगा, जिसमें यह बताने की कोशिश की गई है कि अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या में 274 प्रतिशत तक का इजाफा हुआ है. इसलिए यह निष्कर्ष निकालने में देरी नहीं की गई कि हिंदी की तुलना में अंग्रेजी ज्यादा "पॉपुलर" होती जा रही है.
यहाँ यह तो कहने की जरूरत नहीं कि भारत में सरकारी स्कूलों की स्थिति उतनी अच्छी नहीं है, जितनी होनी चाहिए. इसलिए गरीब से गरीब माँ-बाप भी अपना पेट काटकर अपने बच्चों को तथाकथित इंगलिश मीडियम स्कूलों में इस उम्मीद के साथ भेजते हैं कि वहाँ बहुत पढ़ाई होती है. दूसरी उम्मीद ये रहती है कि इन इंगलिश मीडियम स्कूलों में अगर उनके बच्चे पढ़ेंगे तो वे फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने लगेंगे और उनको आनन-फानन में नौकरी मिल जाएगी. लेकिन उनको जब तक इस कड़वे सच का अहसास होता है कि केवल अंग्रेजी मीडियम के स्कूल में दाखिला करा देने से न तो बच्चों की अंग्रेजी दुरूस्त होती है और न ही केवल पटर-पटर, गलत-सलत या सही-शुद्ध अंग्रेजी बोल लेने से उच्च शिक्षा पाने या नौकरी पाने में आसानी होती है, तब तक देर हो चुकी होती है.
उनको तब और चोट पहुँचती है, जब उनको यह भी अहसास होता है कि अंग्रेजी के चक्कर में उनके बच्चे न तो हिंदी और न ही अपनी मातृभाषा या स्थानीय भाषा ठीक से सीख पाये हैं! इसके अलावा, अधिकांश माँ-बाप इस शोधपूर्ण भाषा-वैज्ञानिक तथ्य को नहीं जानते कि बच्चों के पठन-पाठन का सबसे कारगर माध्यम उसकी मातृभाषा होती है और मातृभाषा में ही किसी विषय की बेहतर समझ और पकड़ बन पाती है.
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है।
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