Re: मेरी रचनाएँ -7 - दीपक खत्री 'रौनक'
शीर्षक :- क्यों न अभिमान करूँ मै
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क्यों न अभिमान करूँ मै
पहचानते हो क्या तुम मुझे
मै वही हूँ मै जो बना कभी
पात्र माँ के दुलार का
बहन के प्यार का
पिता की आँखों मे नुमाया
उनके उज्जवल भविष्य का
अहसास हूँ मै हाँ वही तो हूँ मै
नारी का आभारी हूँ, था और रहूँगा
और जानते तो हो मानो भी
जन्मो जन्मो से हूँ प्रयासरत
निभाने को अंतिम क्षण तक
एक परिवार , एक समाज मे
अपनी सकारात्मक भागीदारी
याके जिम्मेदारी या फ़र्ज़ जो भी
मानों तुम जानो तुम पहचानो तुम
हाँ हाँ वही पुरूष, पुरूष ही तो हूँ मै
क्यों न अभिमान करूँ मै
चाहे रहा हो वो कोई भी युग
बहुत हुआ बखान हर त्याग,
बलिदान और शौर्य का हरदम
क्यों भुलाया पर मुझको तुमने
जहां सीता थी वहाँ राम भी तो थे
राधा थी वहाँ किशन भी तो थे
झाँसी की रानी थी तो प्रताप भी तो थे
माँ का वात्सल्य त्याग अमर है
बाप का दुलार और पुरुषार्थ भी तो है
पत्नी का व्रत , प्रेम लाजवाब है
पति का स्नेह, दायित्व भी तो वहीं है
बहन की दुआओं का असर नहीं भूला मै
भाई का बल, सुरक्षा की अनुभूति भी तो है
क्यों न अभिमान करूँ मै
तुम्हे अगर दिखता हरदम रूप
हर जगह रावन, कंस और दुशासन का
क्यों भूल जाते तुम कैकयी, मन्थरा,
होलिका, सुर्पनखा जैसी प्रजाति को
हाँ कुछ दुष्ट दुष्टता खेले है
पर क्यों हर मुख संताप झेले है
मैंने अगर अच्छा अच्छा देखा है
तुम क्यों इतना बुरा देखते हो
मुझे गर्व है अपने होने पर
और अपने पुरूषार्थ पर
तो कहो क्यों न अभिमान करूँ मै
दीपक खत्री 'रौनक'
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