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Originally Posted by manishsqrt
आपने बचपन की यादें ताज़ा करदी, शयद जितना मज़ा कॉमिक्स में आता था उतना कार्टून में नहीं आता, खैर ये तो अपनी अपनी पसंद भी हो सकती है, हो सकता है आज के बच्चो को कॉमिक्स से ज्यादा अच्छे कार्टून लगते हो. पर बचपन की यादो की बात ही कुछ और होती है, शायद ही किसी प्रकाशक की कॉमिक्स हमसे छुटती हो, राज कॉमिक्स से लेके डायमंड तक लोट पॉट से लेके परमाणु सीरीज तक सब अपने कलेक्शन में थे,नानी के घर जाने का एक बहाना ये भी था की मम्मी रेलवे स्टेशन पर कॉमिक्स दिलवाएगी और लौटते वक़्त मामा या नाना दिलवाएँगे
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मेरा उपद्रवी दिमाग भी यही कहता है की कार्टुन कोई ठोस चीज़ नहीं है। समय के जाते जाते सिर्फ उसके केरेक्टर्स याद रह जाते है और कुछ अच्छी कहानी के टुकडे।
लेकिन पुस्तक या कॉमिक्स एक ठोस चीज़ है। हम उस पर हाथ फिरा कर पढते थे! अगर कोई चीज़ समज़ में ना आई या ज्यादा पसंद आई तो वापस उस पन्ने पर जा कर पढ सकते थे। उसे देख कर अपनी नोटबुक में चित्र बनाया करते थे!
कोमिक्स का कलेक्शन या एक्का-दुक्का कोमिक्स भी हमारा एचीवमेन्ट होती थी। उसे हम दोस्तों को दिखा सकते थे, पढने को देते थे या मांगते थे!
आज कल के बच्चों के अलग शौख है, बड़े हो कर वे उनके शौख याद करेंगे। लेकिन अपना बचपन भी कुछ कम नहीं था!