दलितों की मूँछ और हमारा समाज
दलितों की मूँछ और हमारा समाज
(रवि कुमार के ब्लॉग से)
मूँछ रखने के कारण क्या किसी को पीटा जा सकता है? गरबा देखने के लिए क्या किसी को इतना मारा जा सकता है कि वह मर जाए? क्या इसके पीछे किसी जाति के प्रति घिन है? फिर वो कौन सी चीज़ है जिसके कारण बारात निकलने या गरबा देखने पर किसी दलित की हत्या कर दी जाती है? झगड़े और हत्या के कई कारण हो सकते हैं लेकिन क्या यह हमारे समाज की क्रूरतम सच्चाई आज भी मौजूद नहीं है? अगर हम समाज के भीतर बैठे इस घिन के बारे में सोच लेंगे तो क्या बहुत बुरा हो जाएगा? समाज में काफी हद तक अश्पृश्यता तो समाप्त हुई है लेकिन उसके बचे रहने का प्रतिशत भी कम नहीं है।
अश्पृश्यता का यह नया रूप है घिन। ये घिन ही है जो किसी को किसी की निगाह में कमतर बनाती है और उसके प्रति समाज का व्यवहार बदल देती है। क्या इस हिंसा में शामिल और उसके साथ खड़े लोगों को बेहतर होने में समस्या है? वो क्यों चुप रहते हैं? क्या गुजरात में किसी चीज़ की कमी रह गई है,जहाँ मूँछ के कारण लड़के पीटे जा रहे हैं? सरकार ने नौकरियाँ नहीं दीं तो ख़ाली बैठकर उसका गुस्सा दलित युवकों पर क्यों निकाल रहे हो भाई। सरकार तो तुम्हें दस बारह हज़ार के ठेके पर काम देने से ज़्यादा क़ाबिल नहीं समझती है और आप हैं कि इसका खुंदक दलितों पर निकाल रहे हैं? आप जान गए होंगे कि यहाँ आप से मतलब कौन है।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
Last edited by rajnish manga; 05-10-2017 at 07:35 PM.
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