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Old 18-08-2013, 01:00 PM   #5
dipu
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Default Re: देवरानी जेठानी की कहानी

लाला ने नौकर के हाथ घर चिट्ठी भेज दी। छोटेलाल की बहु ने पहले आप पढ़ी फिर सास को पढ़कर इस तरह सुना दी-



स्*वस्ति श्री सर्वोपमायोग्*य बहु आनंदीजी यहॉं से सुखदेई की राम राम बॉंचना। यहॉं क्षेम-कुशल है। तुम्*हारी क्षेम-कुशल सदा भली चाहिए। बहुत दिन हुए कि तुम्*हारी एक चिट्ठी आई थी। मैंने तो उसका जवाब लिख दिया था। फिर तुमने कोई चिट्ठी नहीं लिखी। यद्यपि वहॉं के आने-जाने वालों से राजी-खुशी की खबर मिलती रही तथापि चिट्ठी के आने से आधा मिलाप है। अब तो मुझे आये बहुत दिन हुए। तुम से मिलने को जी चाहे है। सो मॉं से कहना कि मुझे दो-चार महीने को बुला ले। यहॉं से मेरा जी उछट रहा है। लालाजी से मॉं पूछ देगी जो मेरी नथ बन गयी हो तो ज्ञानचंद मेरे भानजे के हाथ भेज देना और भाई की भोज प्रबंध की पोथी जो तुम्*हारे पास है थोड़े दिन के लिए भेज देना। जब मैं आऊँगी लेती आऊँगी। अब तो यहॉं भी एक लौंडियों का मदर्सा हो गया है। हमारी मिसरानी से हमारी पालागन कह देना और सब सहेलियों और भनेलियों से राम-राम कहना। चिट्ठी का जवाब जरूर-जरूर लिख भेजना। थोड़े लिखे को बहुत जानना। चिट्ठी लिखी मिती मार्गसिर बदी 1 सम्*बत् 1925 ।

सुखदेई की मॉं ने चिट्ठी सुनके कहा कि कल पॉंच सेर आटे के लड्डू कर लीजो। लौंडिया को कोथली भेजनी है और जो मैं कहूँ चिट्ठी में लिख दीजो सो सुखदेई को यह चिट्ठी लिखी गयी-

स्*वस्ति श्री सर्वोपमायोग्*य बीबी सुखदेई जी यहॉं से आनन्*दी की राम-राम बॉंचना। चिट्ठी तुम्*हारी आई। समाचार लिखे सो जाने। तुम्*हारी मॉं जी ने लालाजी से तुम्*हारे बुलाने वास्*ते कहा था। सो उन्*होंने कहा है कि माघ के महीने में हम बाग की प्रतिष्*ठा करेंगे। तब लौंडिया सुखदेई को भी बुलावेंगे और मेरे सामने जेठ जी से कह दिया है कि भाई तु ही लौंडिया को जाके ले अइयो। और वह बाग लाला जी ने दिल्*ली के रास्*ते में लगाया है। उसमें कुऑं तो बन गया है, शिवाला बन रहा है। जिस सुनार को तुम्*हारी नथ बनने को दी थी, वह सोना लेके भाग गया। लाला जी कहें थे, दूसरे सुनार से और बनवा करके भेज देंगे। तुम्*हारी भनेली रामदेई मेरे पास रोज-रोज फुलकारी सीखने आया करे थी। बेचारी बड़ी गरीब थी। तुम्*हें नित याद कर ले थी। जिठानी जी के स्*वभाव को तुम जानो ही हो, एक दिन बेबास्*ते उससे लड़ पड़ी। तीन दिन से वह नहीं आई। दो घड़ी जी बहला रहे था सो यह भी न देख सकीं। फुलकारी का ओन्*ना जो मैं तुम्*हारे लिए अपने पीहर से लायी थी, भोज प्रबन्*ध की पोथी, पॉंच सेर लड्डू और आठ आने नकद तुम्*हारे भानजे के हाथ तुम्*हें भेजे हैं। रसीद भेज देना। तुम्*हारी मॉं ने तुम्*हें राम-राम कही है। मेरी राम-राम अपनी सासू और भनेलियों से कह देना। चिट्ठी लिखी मिति मार्गसिर सुदि 2 सम्*वत 1925।

यह चिट्ठी और चिट्ठी में लिखी हुई चीजें सुखदेई के भानजे के हाथ भेजी गयीं और जबानी भी कहलावत गई कि लाला बंसीधर से कह देना कि माघ के महीने में लौंडिया को लेने बहल आवेगी। ऐसा न हो कि उलटी फिरी आवे। एक चिट्ठी लिख भेजें।

यहॉं दौलत राम की बहु बड़ी भोर उठके गौ की धार काढ़ती। गोबर पाथती। न्*हाती न धोती। चर्खा लेकर बैठ जाती और कभी-कभी दाल दलती नाज फटकती आटा छानती। दस-दस और बीस-बीस मन नाज दूकान से इखट्ठा आ जाय था। उसे अकेली बोरियों और कट्टों में भर देती। काम तो बहुतेरा करे थी। पर वैर-विषवाद बहुत रक्*खे थी।



और यह सास ने दोनों देवरानी जेठानियों को जैसा जिस जोग देखा काम बॉंट दिया था। पीसना-खोटना, चर्खापूनी ऐसी मेहनत के काम देवरानी से नहीं हो सके थे, इसलिये कि उसने बाप के घर किये नहीं थे। परंतु वह उससे दसगुने अच्*छे काम कलाबत्*तू और गोटा-किनारी के जाने थी। पीसने-खोटने में क्*या रक्*खा है। घड़ी भर पीसा, दो पैसा का हुआ। वह आठ आने रोज का कढ़ावट का काम कर ले थी।



जेठानी रोटी खा के फिर चर्खा ले बैठती। इस जैसी इसकी भी दो एक भनेलियॉं थीं। सो कोई न कोई इसके पास आ बैठी करे थी। यह उससे देवरानी का ही झींकना झींकती। सासू का खोट बतलाती कि मेरी सास बड़ी दोजगन है। छोटी बहु को जो कोई आधी बात कहे है तो लड़ने को उठे है। ससुर जी से मेरी रात दिन कटनी करे है। यों कहे है यह तो कच्*ची रोटी करे है। बहिन जिस पै जैसी आती होगी वैसी करेगी। और यह मेरी देवरानी बड़ी खोट और चुपचोट्टी है। मेरा देवर सत्*तर चीजें लावे है। दोनों खसम-जोरू खावे हैं। किसी को एक चीज़ नहीं दिखलाते। छडियों के मेले के दिन जरा सा मूँग का दाना मेरे बास्*ते लेके आई थी, सो मैंने तो फेर दिया। हमें तो जैसा मिल गया खा लिया। मेरी देवरानी छटॉंक भर पक्*का घी दाल में डाल के खावे है। इस प्रकार से नित चुगली करती और अपनी देवरानी को सुना-सुना चर्खा कातती जाती, ताने-मेहने और बोली-ठोली मारती जाती कि ले पीसे कोई और खावे कोई। कोई ऐसी लुगाई भी होती होगी और पीसना नहीं जानती होगी? यों कहो मेहनत नहीं होती।

देवरानी चुपकी सुना करती। कभी कुछ न कहती। एक दिन उसने इतना कहा था कि जेठानी जी, तुम्*हारा कैसा स्*वभाव है बाहर की लुगाइयों के सामने तो बोली-ठाली की बात मत कहा करो। इसमें घर की बदनामी है।

उसके पीछे ऐसी पॉंच पत्*थर लेकर पड़ी कि उसे पीछा छुड़ाना दुर्लभ हो गया।

और बोली अब चल तो तेरी जेठानी है उससे कह। छोटा मुँह और बड़ी बातें। आप मेरी बड़ी बनके बैठी है और जो कुछ मुँह में आया कहती रहीं।

वह बेचारी चुपकी होके चली आई।

सास ने कहा अरी तू उससे क्*यों बोली थी?

उसने कहा अयजी, मैंने तो उसके भले की बात कही थी।

सास ने कहा मैं क्*या कहूँ? हमारी वह कहावत है कि अपना मरण जगत की हांसी।

दौलत राम की बहु जहॉं तक होता अपने मालिक से रात को नित्*यप्रति सास और देवरानी की बुराई करती। तुम जानो, आदमी ही तो है और बेपढ़ा। रोज-रोज के सिखलाने और बहकाने से दौलतराम भी अपनी बहु की हिमायत करने लगा और मॉं से लड़ने लगा।

जब उसकी मॉं ने यह हाल देखा तो एक दिन उसके बाप से कहा और यह सलाह दी कि दौलत राम को जुदा कर दो। और मैं तो छोटी बहु में रहूँगी। तुम्*हारी तुम जानो।
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