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Old 16-12-2010, 05:59 PM   #1
Hamsafar+
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Default मुहर्रम : हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक

सैयद आसिफइमाम ककवी जी के सौजन्य से :-

इस्लामी नया साल यानी हिजरी सन्* 1432 मुबारक! दुनिया के हर मजहब या कौम का अपना-अपना नया साल होता है। नए साल से मुराद (आशय) है पुराने साल का खात्मा और नए दिन की नई सुबह के साथ नए वक्त की शुरुआत। नए वक्त की शुरुआत ही दरअसल नए साल का आगाज है।
मोहर्रम के महीने की पहली तारीख से इस्लामी नया साल यानी नया हिजरी सन्* शुरू होता है।
इस्लामी कैलेंडर में जिलहिज के महीने की आखिरी तारीख को चाँद दिखते ही पुराना साल विदाई के पायदान पर आकर रुखसत हो जाता है और अगले दिन यानी मोहर्रम की पहली तारीख से इस्लामी नया साल शुरू हो जाता है। मोहर्रम के महीने की पहली तारीख से नया हिन्दी सन्* यानी नया इस्लामी साल शुरू होता है।

काबिले-गौर बात यह है कि पहली तारीख यानी यकुम मोहर्रम से जो इस्लामी नया साल शुरू होता है उसमें मुबारकबाद अर्थात बधाई देने के लिए कभी भी 'मोहर्रम मुबारक' नहीं कहा जाता (क्योंकि मोहर्रम के महीने की दसवीं तारीख, जिसे 'यौमे-आशुरा' कहा जाता है, को ही हजरत इमाम हुसैन की पाकीजा शहादत का वाकेआ पेश आया था) बल्कि कहा जाता है 'नया साल मुबारक!' चूँकि मोहर्रम के महीने में ही हजरत मोहम्मद (स.) के नवासे हजरत इमाम हुसैन की शहादत का वाकेआ पेश हुआ था, इसलिए शुरुआती तीन दिनों यानी मोहर्रम के महीने की पहली तारीख से तीसरी तारीख तक मुबारकबाद दे देनी चाहिए।

हजरत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम (अ.ल.) की कुर्बानी हमें अत्याचार और आतंक से लड़ने की प्रेरणा देती है। इतिहास गवाह है कि धर्म और अधर्म के बीच हुई जंग में जीत हमेशा धर्म की ही हुई है। चाहे राम हों या अर्जुन व उनके बंधु हों या हजरत पैगंबर (सल्ल.) के नवासे हजरत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, जीत हमेशा धर्म की ही हुई है।

चाहे धर्म की ओर से लड़ते हुए इनकी संख्या प्रतिद्वंद्वी के मुकाबले कितनी ही कम क्यों न हो। सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल बने हजरत इमाम हुसैन (अ.ल.) ने तो जीत की परिभाषा ही बदल दी। कर्बला में जब वे सत्य के लिए लड़े तब सामने खड़े यजीद और उसके 40,000 सैनिक के मुकाबले ये लोग महज 123 (72 मर्द-औरतें व 51 बच्चे थे)। इतना ही नहीं, इमाम हुसैन (अ.ल.) के इस दल में तो एक छह माह का बच्चा भी शामिल था।

सत्य पर, धर्म पर मर मिटने का इससे नायाब उदाहरण विश्व इतिहास में कहीं और ढूँढ़ना कठिन है। इन्हें अपनी शहादत का पता था। ये जानते थे कि आज वह कुर्बान होकर भी बाजी जीत जाएँगे। युद्ध एकतरफा और लोमहर्षक था। यजीद की फौज ने बेरहमी से इन्हें कुचल डाला। अनैतिकता की हद तो यह थी कि शहीदों की लाशों को दफन तक न होने दिया।

इतिहासकार मसूदी ने उल्लेख किया है कि इमाम हुसैन (अ.ल.) छह वर्ष की उम्र तक हजरत पैगंबर (स.) के साथ रहे तथा इस समय सीमा में इमाम हुसैन (अ.स.) को सदाचार सिखाने, ज्ञान प्रदान करने तथा भोजन कराने का उत्तरदायित्व स्वयं पैगंबर (स.) के ऊपर था।

पैगंबर (स.) इमाम हुसैन (अ.स.) से अत्याधिक प्रेम करते थे। इमाम हुसैन (अ.स.) से प्रेम के संबंध में पैगंबर (स.) के इस प्रसिद्ध कथन का शिया व सुन्नी दोनों ही संप्रदायों के विद्वानों ने उल्लेख किया है कि पैगंबर (स.) ने कहा कि हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से हूँ। अल्लाह तू उससे प्रेम कर जो हुसैन से प्रेम करे। हजरत पैगंबर (स.) के स्वर्गवास के बाद हजरत इमाम हुसैन (अ.स.) तीस वर्षों तक अपने पिता हजरत इमाम अली (अ.स.) के साथ रहे और समस्त घटनाओं व विपत्तियों में अपने पिता का हर प्रकार से सहयोग किया।

हजरत इमाम अली (अ.स.) की शहादत के बाद दस वर्षों तक अपने बड़े भाई इमाम हसन के साथ रहे तथा सन् पचास (50) हिजरी में उनकी शहादत के पश्चात दस वर्षों तक घटित होने वाली घटनाओं का अवलोकन करते हुए मुआविया का विरोध करते रहे। जब सन् साठ (60) हिजरी में मुआविया का देहांत हो गया तथा उसके बेटे यजीद ने गद्दी संभाली और हजरत इमाम हुसैन (अ.स.) से बैअत (अधीनता स्वीकार करना) करने के लिए कहा, तो आपने बैअत करने से मना कर दिया और इस्लाम की रक्षा के लिए वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गए।

हजरत इमाम हुसैन (अ.स.) ने सन् 61 हिजरी में यजीद के विरुद्ध कियाम (किसी के विरुद्ध उठ खड़ा होना) किया। उन्होंने कहा, 'मैं अपने व्यक्तित्व को चमकाने या सुखमय जीवनयापन करने या उपद्रव फैलाने के लिए कियाम नहीं कर रहा हूँ बल्कि केवल अपने नाना (पैगंबर), इस्लाम की उम्मत में सुधार के लिए जा रहा हूँ तथा मेरा निश्चय मनुष्यों को अच्छाई की ओर बुलाना व बुराई से रोकना है। मैं अपने नाना पैगंबर (स.) व अपने पिता इमाम अली (अ.स.) की सुन्नत (शैली) पर चलूँगा।
कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत से मुसलमानों के दिलों में यह चेतना जाग्रत हुई कि हमने इमाम हुसैन (अ.स.) की सहायता न करके बहुत बड़ा पाप किया है। इस गुनाह के अनुभव की आग लोगों के दिलों में निरंतर भड़कती चली गई और अत्याचारी शासन को उखाड़ फेंकने की भावना प्रबल होती गई। समाज के अंदर एक नया दृष्टिकोण पैदा हुआ कि अपमानजनक जीवन से सम्मानजनक मृत्यु श्रेष्ठ है।

कहते हैं कि इमाम हुसैन ने यजीद की अनैतिक नीतियों के विरोध में मदीना छोड़ा और मक्का गए। उन्होंने देखा कि ऐसा करने से यहाँ भी खून बहेगा तो उन्होंने भारत आने का भी मन बनाया लेकिन उन्हें घेर कर कर्बला लाया गया और यजीद के नापाक इरादों के प्रति सहमति व्यक्त करने के लिए कहा गया। लेकिन सत्य की राह पर चलने की इच्छा के कारण उनकी शहादत 10 मुहर्रम 61 हिजरी यानी 10 अक्टूबर 680 ईस्वी को हुई।

ऐसे में भारत के साथ कहीं न कहीं इमाम हुसैन की शहादत का संबंध है- दिल और दर्द के स्तर पर। यही कारण है कि भारत में बड़े पैमाने पर मुहर्रम मनाया जाता है। यह पर्व हिंदू-मुस्लिम एकता को एक ऊँचा स्तर प्रदान करता है।
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