Re: Muhobbat
प्रभा खेतान ने कभी ऐसे ही प्रेम की कल्पना की थी। लेकिन अफसोस, डॉ. सर्राफ से ऐसा प्यार उन्हें नहीं मिला। समय के साथ उन्हें ये आभास होने लगा था कि “मैंने और डॉ. साहब ने जिस चाँद को साथ-साथ देखा था वह नकली चाँद था”। प्यार को निभाने का जो उत्साह प्रभा खेतान में था वह डॉ. सर्राफ में दिखा ही नहीं। निष्कपटता, निश्छलता प्रेम की कसौटी है। इसमें लेने का नहीं, देने का भाव होना चाहिए। लेखिका ने तो अपना हर कर्तव्य निभाया लेकिन डॉ. सर्राफ ने इस रिश्ते के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं निभाई। घनानंद के शब्दों में कहें तो-
‘‘तुम कौन धौं पाटी पढ़े हो लला
मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं।’’
पूरी आत्मकथा में एक निष्ठा व आस्था व्यक्त हुई है जिसके कारण उन्हें पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर बहुत कुछ झेलना पड़ा। उनका अन्तर्मन उनसे पूछता है ‘‘आखिर मैं क्यों नहीं अपने लिए जीती ? मैं क्यों एक परजीवी की तरह जी रही हूँ। किसलिए?
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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