Re: ~!!चन्द्रकान्ता!!~
तीसरा बयान
कुछ-कुछ दिन बाकी है, चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बाग में टहल रही हैं। भीनी-भीनी फूलों की महक धीमी हवा के साथ मिलकर तबीयत को खुश कर रही है। तरह-तरह के फूल खिले हुए हैं। बाग के पश्चिम की तरफ वाले आम के घने पेड़ों की बहार और उसमें से अस्त होते हुए सूरज की किरणों की चमक एक अजीब ही मजा दे रही है। फूलों की क्यारियों की रविशों में अच्छी तरह छिड़काव किया हुआ है और फूलों के दरख्त भी अच्छी तरह पानी से धोए हैं। कहीं गुलाब, कहीं जूही, कहीं बेला, कहीं मोतिये की क्यारियाँ अपना-अपना मजा दे रही हैं। एक तरफ बाग से सटा हुआ ऊँचा महल और दूसरी तरफ सुन्दर-सुन्दर बुर्जियां अपनी बहार दिखला रही हैं। चपला, जो चालाकी के फन में बड़ी तेज और चन्द्रकान्ता की प्यारी सखी है, अपने चंचल हाव-भाव के साथ चन्द्रकान्ता को संग लिए चारों ओर घूमती और तारीफ करती हुई खुशबूदार फूलों को तोड़-तोड़कर चन्द्रकान्ता के हाथ में दे रही है, मगर चन्द्रकान्ता को वीरेन्द्रसिंह की जुदाई में ये सब बातें कम अच्छी मालूम होती हैं? उसे तो दिल बहलाने के लिए उसकी सखियां जबर्दस्ती बाग में खींच लायी हैं।
चन्द्रकान्ता की सखी चम्पा तो गुच्छा बनाने के लिए फूलों को तोड़ती हुई मालती लता के कुंज की तरफ चली गई लेकिन चन्द्रकान्ता और चपला धीरे-धीरे टहलती हुई बीच के फौव्वारे के पास जा निकलीं और उसकी चक्करदार टूटियों से निकलते हुए जल का तमाशा देखने लगीं।
चपला : न मालूम चम्पा किधर चली गयी?
चन्द्रकान्ता : कहीं इधर- उधर घूमती होगी।
चपला : दो घड़ी से ज्यादा हो गया, तब से वह हम लोगों के साथ नहीं है।
चन्द्रकान्ता : देखो वह आ रही है।
चपला : इस वक्त तो उसकी चाल में फर्क मालूम होता है।
इतने में चम्पा ने आकर फूलों का एक गुच्छा चन्द्रकान्ता के हाथ में दिया और कहा, ‘‘देखिये, यह कैसा अच्छा गुच्छा बना लायी हूँ, अगर इस वक्त कुंवर वीरेन्द्रसिंह होते तो इसको देख मेरी कारीगरी की तारीफ करते और मुझको कुछ इनाम भी देते।’’
वीरेन्द्रसिंह का नाम सुनते ही एकाएक चन्द्रकान्ता का अजब हाल हो गया। भूली हुई बात फिर याद आ गई, कमल मुख मुरझा गया, ऊंची-ऊंची सांसें लेने लगी, आँखों से आँसू टपकने लगे। धीरे-धीरे कहने लगी, ‘‘न मालूम विधाता ने मेरे भाग्य में क्या लिखा है? न मालूम मैंने उस जन्म में कौन से-ऐसे पाप किये हैं जिनके बदले यह दु:ख भोगना पड़ रहा है? देखो, पिता को क्या धुन समायी है। कहते हैं कि चन्द्रकान्ता को कुंवारी ही रक्खूँगा। हाय ! वीरेन्द्र के पिती ने शादी करने के लिए कैसी-कैसी खुशामदें कीं , मगर दुष्ट क्रूर के बाप कुपथसिंह ने उसको ऐसा कुछ बस में कर रखा है कि कोई काम नहीं होने देता, और उधर कम्बख्त क्रूर अपनी ही लसी लगाना चाहता है।’’
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