Re: ईद से पहले हाज़िरी
परदे के पीछे से डोर
महान परम्पराओं और समन्वय वाली संस्कृति वाले हमारे देश की मिट्टी सदैव ही प्यार, मोहब्बत और भाईचारे की सौंधी महक फैलाती रही है और खून, एवं वैरभाव की प्यासी कभी नहीं रही। वह गहन, गंभीर और उच्च कोटि की आदर्श रही हैं। यहां डग-डग पर प्रेम, सहयोग और सद्भाव का नीर और रोटी बहुतायत से पाई जाती रही है। मगर यदा-कदा आभास होता है कि ऐसी महान मिट्टी वाली धरती पर घृणा, वैमनस्य, रक्तपात एवं हिंसा की आग का जन्म भी हो जाता है। वह आग प्रेम-सरोवर में जल कुम्भी और उर्वरा भूमि में बेशर्म झाड़ की तरह उगती है। विचार करना होगा कि अगर हिंसा है तो बीज भी कोई लाता होगा, बीज बोता होगा और पौधे पालता भी होगा। वैसे भावुक जन मानस के चलते कमोबेश पूरे भू-भाग में इसके बीज मौजूद हैं मगर जहां जमीन अधिक भावुक, मासूम और संवेदनशील है, वह उन्हें असमझी में ही अपना लेती है। नतीजन झगड़े, धधकन, घायल और कराह के दृश्य उत्पन्न हो जाते हैं। लोग जूनून में आकर समझने लगते हैं कि वे मर रहे हैं, मार रहे हैं और अपने-अपने उन्माद में मशगूल हो जाते हैं। मगर वे जो परदे के पीछे से डोर हिलाते हैं,वे अपने-अपने फायदे का गणित लगाते रहते हैं और प्रसन्न होते हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि उनके लिए जो लड़ते हैं, वे तो उनकी कठपुतली, मोहरे और गेंद हैं, खेलने-खिलाने की हर चीज है मगर इन्सान नहीं। आप-हम भी समझते हैं कि खिलौने की हार-जीत क्या? मृत्यु और जीवन क्या? हां अगर हम समझ लें कि हम खिलौने हैं, कठपुतली हैं और मोहरे हैं तो शायद हमारा आत्मज्ञान जागे और हम अपने अकृत्यों के कृत्य पहचान जाएं और शायद उनको भी पहचान जाए जो हमें इन्सान से मोहरा बनाते हैं और हमें घृणा, हिंसा ओर विद्वेश की शतरंज पर पैदल दौड़ाते हैं।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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