13-01-2016, 04:20 PM
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Re: मैं हूँ आकाश में उड़ता बादल
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Originally Posted by soni pushpa
मैं हूँ आकाश में उड़ता बादल
अविरल स्निग्ध मुलायम सुन्दर श्वेत चादर सी फैली
चूम रही थी पर्वत माला को वो बादल की एक छवि
....कही लगा करे है क्रीड़ा एक बड़ा बादल छोटे बादल संग.
कहीं ऊँचे पहाड़ो पर ऐसा बिछौना बना जैसे हो रुई कपास का रंग
श्वेत लहर और अपार शांति उल्लसित कर देती तन और मन को.
नीरवता में निमग्न बादल हास्य कर रहे थे मानव से
जन जीवन को गुरु बन कर ज्यों शिक्षा देते थे बादल
....बिना सहारों के चलते जाते तन्हा बिना शिकायत शिकवे के
बस एक गिला है तुमसे यही संयंत्रों ने किया जीना दूभर
पहले की तरह अब चाह के भी बरसना अब तो कठिन हुआ
ग्लोबल वोर्मींग ने नमी सोख ली, पग में छाले ही छाले हैं
अब रूप कुरूप हुआ अपना ही शीतलता को दिन-रात तरसते
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आकाश में उड़ते हुए श्वेत बादलों को देख कर आपने अपनी कविता में न सिर्फ प्रकृति के धवल स्वरूप की सुंदरता का चित्रण किया है बल्कि धरती के जन जीवन, पशु-पक्षियों और वनस्पतियों को बनाये रखने के लिए अपने निस्वार्थ योगदान के माध्यम से मनुष्य को सीख देने का सुंदर प्रयास भी किया है. कविता का सबसे महत्वपूर्ण भाग वह है जहाँ आपने बढ़ते प्रदूषण के दुष्प्रभाव में बादलों और बारिश में आयी कमीं का ज़िक्र किया गया है. अब तो जीवन प्रदान करने वाली शक्तियां ही चिंताजनक अवस्था में दिखाई दे रही हैं.
"पहले की तरह अब चाह के भी बरसना अब तो कठिन हुआ
ग्लोबल वोर्मींग ने नमी सोख ली, पग में छाले ही छाले हैं यह दुखद स्थिति है"
अतः इसको सुधारने के लिए वैश्विक स्तर पर कारगर उपाय करने की आवश्यकता है. इस प्रकार एक उद्देश्यपूर्ण कविता फोरम पर साझा करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद, बहन पुष्पा जी.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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