Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
बूढ़ों के लिए अतीत के सुखों और वर्तमान के दुःखों और भविष्य के सर्वनाश से ज़्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता। दोनों मित्र अपने-अपने दुखड़े रोते रहे। भोला ने अपने बेटों के करतूत सुनाये, होरी ने अपने भाइयों का रोना रोया और तब एक कुएँ पर बोझ रखकर पानी पीने के लिए बैठ गये। गोबर ने बनिये से लोटा माँगा और पानी खींचने लगा।
भोला ने सहृदयता से पूछा — अलगौझे के समय तो तुम्हें बड़ा रंज हुआ होगा। भाइयों को तो तुमने बेटों की तरह पाला था।
होरी आद्रर् कंठ से बोला — कुछ न पूछो दादा, यही जी चाहता था कि कहीं जाके डूब मरूँ। मेरे जीते जी सब कुछ हो गया। जिनके पीछे अपनी जवानी धूल में मिला दी, वही मेरे मुद्दई हो गये और झगड़े की जड़ क्या थी? यही कि मेरी घरवाली हार में काम करने क्यों नहीं जाती। पूछो, घर देखनेवाला भी कोई चाहिए कि नहीं। लेना-देना, धरना उठाना, सँभालना-सहेजना, यह कौन करे। फिर वह घर बैठी तो नहीं रहती थी, झाड़ू-बुहारू, रसोई, चौका-बरतन, लड़कों की देख-भाल यह कोई थोड़ा काम है। सोभा की औरत घर सँभाल लेती कि हीरा की औरत में यह सलीका था? जब से अलगौझा हुआ है, दोनों घरों में एक जून रोटी पकती है। नहीं सब को दिन में चार बार भूख लगती थी। अब खायँ चार दफ़े, तो देखूँ। इस मालिकपन में गोबर की माँ की जो दुर्गती हुई है, वह मैं ही जानता हूँ। बेचारी अपनी देवरानियों के फटे-पुराने कपड़े पहनकर दिन काटती थी, ख़ुद भूखी सो रही होगी; लेकिन बहुओं के लिए जलपान तक का ध्यान रखती थी। अपनी देह पर गहने के नाम कच्चा धागा भी न था, देवरानियों के लिए दो-दो चार-चार गहने बनवा दिये। सोने के न सही चाँदी के तो हैं। जलन यही थी कि यह मालिक क्यों है। बहुत अच्छा हुआ कि अलग हो गये। मेरे सिर से बला टली।
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