Re: कुतुबनुमा
व्यावसायिकता में नख-दन्त और नेत्र विहीन होता मीडिया
गत दिनों तमिलनाडु की मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली अन्ना द्रमुक सरकार ने जब अपने कार्यकाल का एक वर्ष पूरा किया, तो उसे लेकर मीडिया ने जो कवरेज किया उससे साफ जाहिर हो गया कि अब मीडिया के मायने और उसके काम करने के तरीके ही बदल चुके हैं। एक राज्य के मुख्यमंत्री का एक साल का कार्यकाल पूरा हो और उसकी चमक दमक केवल चेन्नई तक ही नहीं, राजधानी दिल्ली तक पहुंच जाए, तो यह साफ कहा जा सकता है कि इसमें मीडिया, खासकर प्रिंट मीडिया की भी बड़ी भूमिका रही है। यदि इसकी गहराई में उतरा जाए, तो एक बात तो साफ हो जाती है कि तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता इतना तो जान ही चुकी हैं कि अपने मकसद के लिए मीडिया का इस्तेमाल किस तरह से किया जा सकता है। सप्ताह भर पहले से ही अखबारों में, जिनमें खुद को राष्ट्रीय स्तर का बताने वाले अखबार भी शामिल हैं, सरकारी तौर पर होने वाले समारोह के बड़े-बड़े फोटो प्रकाशित होने लगे थे। ऐसा लगा मानो जयललिता ने इन अखबारों को मुंहमांगी कीमत देकर खरीद लिया हो। केवल दिल्ली ही नहीं, बल्कि देश के लगभग सभी अंग्रेजी अखबारों के पहले और अंतिम पेज जयललिता के गुणगान से पटे रहे। लग रहा था कि इस सरकार ने एक ही साल में इतना काम कर दिया, जितना शायद ही पहले कभी हुआ हो। इसे मीडिया का व्यावसायिकता की तरफ बढ़ना ही कहा जाएगा कि देश के लगभग सभी प्रमुख अंग्रेजी समाचार पत्रों के 16 मई के अंक में मुख्य पृष्ठ पर जया ही छाई रहीं । कुछ अखबारों में चार पेज के भी विज्ञापन दिए गए हैं। अंग्रेजी अखबारों के पहले पेज जया की आदमकद फोटो के साथ एक साल के उनके कामकाज के गुणगान से भरे पड़े थे। अगर उपलब्ध सूचनाओं को सच माना जाए, तो मीडिया के लिए इस विज्ञापन अभियान की खातिर जयललिता ने 25 करोड़ का बजट तय किया गया था। हद तो तब हो गई, जब कई समाचार पत्रों में जयललिता को उनके चुनावी वादों जैसे चावल के मुफ्त वितरण, मिक्सर ग्राइंडर्स, गाय-बकरियां और बेटी की शादी के लिए मंगलसूत्र देते हुए चित्रों को भी दर्शाया गया अर्थात यह साफ हो गया कि ऐसा सब कुछ प्रकाशित करने से पहले मीडिया ने यह देखने तक की जहमत नहीं उठाई कि जो सामग्री वे प्रकाशित कर रहे हैं, उसमें सच्चाई भी है अथवा नहीं। जयललिता ने तो अपनी आत्म-प्रशंसा के लिए पैसे को पानी की तरह बहाया, लेकिन इससे यह भी सिद्ध हो गया कि मीडिया में अब विज्ञापनों का ही बोलबाला हो गया है। पैसा फैंको और तमाशा देखो की स्थिति बन गई है, लेकिन यहां सवाल उठता है कि जब पैसे के आगे विवेक नतमस्तक हो जाएगा, तो मीडिया अपने पाठकों या दर्शकों को सच्चाई से रूबरू कैसे करवा पाएगा। हाल ही इस विषय पर हुई बहस में भी यह सामने आया था कि इलेक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया में इन दिनों विज्ञापनों की भरमार के कारण वे अपने पाठकों या दर्शकों के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं। सरकार ने भी इस मसले पर गौर किया है और पिछले दिनों यह निर्णय किया गया कि ऐसा प्रावधान किया जाएगा कि कोई चैनल एक घंटे के कार्यक्रम में बारह मिनट से ज्यादा का विज्ञापन प्रसारित न करे। ट्राई ने हाल ही ऐसे निर्देश जारी भी कर दिए हैं। निश्चित रूप से अब ऐसा करना जरूरी भी हो गया है, वरना व्यावसायिकता की दौड़ में मीडिया अपनी मूल भावना से ही भटक जाएगा और वही करेगा, जो पिछले दिनों जयललिता के मामले में हुआ।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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