Re: अलंकार (प्रेमचंद)
'मित्र, कुत्तों और ऋषियों का अपमान करना समान ही व्यर्थ है। कुत्ते क्या हैं, हम यह नहीं जानते। हमको किसी वस्तु का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं।'
'तो क्या तुम भरांतिवादियों में हो ? क्या तुम उस निबुद्धि, कर्महीन सम्परदाय में हो, जो सूर्य के परकाश में और रात्रि के अन्धकार में कोई भेद नहीं कर सकते ?'
'हां मित्र, मैं वास्तव में भरमवादी हूं। मुझे इस सम्परदाय में शान्ति मिलती है, चाहे तुम्हें हास्यास्पद जान पड़ता हो। क्योंकि एक ही वस्तु भिन्नभिन्न अवस्थाओं में भिन्नभिन्न रूप धारण कर लेती है। इस विशाल मीनारों ही को देखो। परभात के पतीपरकाश में यह केशर के कंगूरोंसे देख पड़ते हैं। सन्ध्या समय सूर्य की ज्योति दूसरी ओर पड़ती है और कालेकाले त्रिभुजों के सदृश दिखाई देते हैं। यथार्थ में किस रंग के हैं, इसका निश्चय कौन करेगा ? बादलों ही को देखो। वह कभी अपनी दमक से कुन्दन को जलाते हैं, कभी अपनी कालिमा से अन्धकार को मात करते हैं। विश्व के सिवाय और कौन ऐसा निपुण है जो उनके विविध आवरणों की छाया उतार सके ? कौन कह सकता है कि वास्तव में इस मेघसमूह का क्या रंग है ? सूर्य मुझे ज्योतिर्मय दीखता है, किन्तु मैं उसके तत्त्व को नहीं जानता। मैं आग को जलते हुए देखता हूं, पर नहीं जानता कि कैसे जलती है और क्यों जलती है ? मित्रवर, तुम व्यर्थ मेरी उपेक्षा करते हो। लेकिन मुझे इसकी भी चिन्ता नहीं कि कोई मुझे क्या समझता है, मेरा मान करता है या निन्दा।'
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !!
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