Re: इधर-उधर से
कुछ यादें
साभार: ममता कालिया जी
विख्यात कवि कुँवर नारायण ने घर से बेघर होने की प्रक्रिया को बेहद मर्मस्पर्शी शब्दों में यूँ व्यक्त किया है:
घर रहेंगे हमीं उनमें रह न पायेंगे
समय होगा हम अचानक बीत जायेंगे
पापा की नौकरी ने हमें कई शहरों की हवा खिलाई. हम कहीं के न बचे या हर जगह के हो लिए. आखिर कई वजह होती हैं अपना घर छोड़ने की. वर्ना अपना ठिया कौन छोड़ना चाहता है. मुनव्वर राना ने सच ही कहा है:
अपने गाँव में भैया सब कुछ अच्छा लगता है
पेड़ पे बैठा एक गवैया अच्छा लगता है
हर विस्थापित के लिए अपना शहर एक सपना बन जाता है. वह नए शहर में लाख किल्लतों में रह लेता है कि एक दिन लौटेगा अपने प्यारे शहर में. उसके मन के दो हिस्से बन जाते हैं, एक उसकी रोजी-रोटी का शहर, दूसरा उसके नेह-नाते का शहर. अनजान शहर को अपना बनाना कोई खेल नहीं होता. शुरू में तो पानी भी बेस्वाद और बेगाना लगता है. धीरे-धीरे शहर खुलता है, किताब की तरह, हिजाब की तरह, एक ख्वाब की तरह.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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