Re: डायरी के पन्ने
डायरी के पन्ने (2)
इलाहाबाद छोड़ने के पूर्व की कुछ घटनाएँ याद आ रही हैं। जब मैं इन्टरमीडियेट में पढ़ रही थी, दादा को मेरे विवाह की चिन्ता हुई। कानपुर के एक क्रान्तिकारी, स्वतंत्रता सेनानी विख्यात पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी हुआ करते थे। हरिशंकर विद्यार्थी नामक उनके पुत्र के साथ दादा ने मेरे विवाह की चर्चा अपने कानपुरी मित्रों के मार्फत की। दादा ने उन्हें मेरे लिए अति योग्य वर के रूप में पसन्द कर लिया। अपने एक पत्र द्वारा दादा ने मुझे इतनी सूचना दी और मेरी सहमति माँगी। संयोग से वह पत्र भी अभी मिल गया। मेरे सहमत-असहमत होने से पूर्व ही जीजाजी ने दादा को लिखा कि वे स्वयँ कानपुर जा कर उस विद्यार्थी परिवार से मिलेंगे, लड़के को स्वयं देखकर निर्णय लेना चाहेंगे। जीजाजी कानपुर गए हरिशंकर जी की जाँच-परख करके लौट कर मेरी उपस्थिति में दीदी को बताया की परिवार यद्यपि बहुत अच्छा है पर लड़के की टाँग में कुछ खोट है। वह झुक कर के चलता है। दीदी ने आँख से कनखी मार कर मेरी ओर देखा और स्वयँ झुक कर चलना शुरू किया। फिर जीजीजी से पूछा ऐसे चलता है? ‘हाँ’ जीजाजी का संक्षिप्त उत्तर था। उस समय ठहाका मार कर हम सब हँस पड़े थे। आखिर जीजाजी ने दादा को लिख दिया कि मित्थल के लिए यह रिश्ता उपयुक्त नहीं है। कुछ समय बाद शायद मौसी के द्वारा सुना गया कि उनकी कोई रिश्ते में लगने वाली लड़की ‘मुक्ता’ (जो मेरे साथ पढ़ती थी) का विवाह हरिशंकरजी से सम्पन्न हुआ। अपने गिरते स्वास्थ्य को देखते दादा अपने जीवनकाल में ही मेरे विवाह के लिए चिन्तित रहते थे। इसी कारण वह अपने भाइयों को भी मेरे लिए उपयुक्त वर खोजने के लिए लिखते होंगे। उन दिनों हमारे सबसुख चाचा (जो मुझे बहुत प्यार करते थे) जावरा स्टेशन पर बुकिंग क्लर्क थे। जावरा छोटी सी मुस्लिम रियासत थी। इन्टर की परीक्षा देकर ग्रीष्मकालीन अवकाश में हम सब अजमेर आए थे। उसी बीच सबसुख चाचा का एक पोस्टकार्ड दादा के नाम आया। उन्होंने दादा को सूचित किया कि नूरचश्मी मित्थल (चाचा मेरे लिए सदा यही सम्बोधन प्रयुक्त करते थे) को देखने दो सज्जन हैदराबाद से आ रहे हैं
Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:14 AM.
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