Re: डायरी के पन्ने
दादा ने उन्हें निराश कर दिया था। असल में ये लोग उस खानदान के गुमाश्ता और दीवान थे। अजमेर से लौटते समय वे दोनों जावरा रुक कर चाचा से फिर मिले और उन्हें सारा किस्सा सुना कर कह दिया कि हम लोग आपके भाई साहब के यहाँ से कितनी निराशा लेकर लौट रहे हैं। चाचा अवाक्*! दूसरे दिन ही चाचा स्वयँ दादा से मिलने अजमेर आ गए। दादा को बहुत मनाने की कोशिश की। पर अपने दादा निश्चय पर अडिग रहे। ऐसा अच्छा मौका दादा चूक रहे हैं, यह कह कर चाचा लौट गए। आज तुम्हारे सामने अपने मन की बात खोलूँ? दादा का हठ मुझे भी कचोटता रहा, कुछ दिनों तक। दीदी मेरी मित्र जैसी थीं। उनसे मैंने कह भी दिया कि दादा पूछते तो सही कि मुझे पर्दा गाड़ी में बैठते कष्ट होता क्या? जालीदार पर्दे में से मैं बाहर झाँक तो सकती थी। बाहर वाला मुझे क्यों देखें? आदि-आदि…ऐसे नाज़ुक मसले पर मैं दादा के आगे मन खोलने की हिम्मत न जुटा पाई थी। हाँ, दीदी ने अलबत्ता दादा को कह दिया कि मित्थल को पर्दे में रहने से उज्र नहीं था। जानती हो, उस समय दादा ने क्या तर्क दिया था? अम्मा यद्यपि परलोकगामी हो गई थीं पर अम्मा का आदर्श, उनका सिद्धान्त दादा को सदैव सजग रखता था। अम्मा पर्दे को कुप्रथा की संज्ञा दे चुकी थीं। अम्मा की हर इच्छा का मान रखना दादा के जीवन का महान्* लक्ष्य था। इस रिश्ते को नामंजूर कर दादा ने अम्मा की आत्मा को सन्तोष पहुँचाया। ऐसा विश्वास दादा का रहा होगा। टीटू, ऐसे संवेदनशील प्रसंग और भी आने हैं। आज इतना ही । पुराने पत्रों को पढ़ने की इच्छा है।
Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:16 AM.
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