Re: मेरी कहानी /डायरी के पन्ने
उसी सन्दर्भ में उन लड़कों ने आपस में तय किया कि कल अपन एक गुड्डा लाकर मंच पर फेंक कर कहेंगे कि लो इस पुत्र को अपनी गोद में बिठा लो। मेरी एक सहपाठिन थी विमला सक्सेना। उसके भाई ने (जो युनिवर्सिटी का ही छात्र था) इस योजना की बात सुन ली। उसने घर पहुँच कर विमला के कान में यह बात डाल कर सावधान रहने की सलाह दी। दूसरी दिन जब मेन शो होना था विमला ने मुझे इस अटपटी योजना की बात बताई। मैं कितनी घबराई, कह नहीं सकती। पर हमारे संरक्षक रुद्रा साहब जो थे। लड़कियों का मामला था, बड़ी महती जिम्मेवारी उन पर थी। मैंने उनसे जा कर यह बात बताई। उन्होंने आश्वासन दिया कि ‘‘तुम घबराती क्यों हो? मैं यहां किसलिए बैठा हूँ” पर्दे के पीछे मन्दिर तैयार, मैं भी सजी-धजी साइड विन्ग में पूजा का थाल लिए खड़ी हो गई। पर्दा ऊँचा होने से क्षण भर पूर्व रुद्रा साहब स्टेज पर आ कर खड़े हो गए। पल भर चुप रह कर उन्होंने हॉल के चारों और दृष्टि डाल कर अपनी उपस्थिति जता दी। पर उनका ऐसा करना आउट ऑव प्लेस न मालूम दे इसलिए उन्होंने एक वाक्य बोल कर घोषणा की कि अब नाटक का मंचन होने वाला है। यद्यपि इस दिन केवल इन्वाइटेड जेन्ट्री ही की अपेक्षा थी, किन्तु कुछ छात्र अपनी दादागिरी से प्रवेश पा ही चुके थे। रुद्रा साहब के व्यक्तित्व का जादू ही था कि उन लड़कों को गुडिया स्टेज पर फेंकने का साहस नहीं हुआ। बड़ी शान्ति से सारा कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। हाँ, इस दिन भी बिना मेरी विनती किए रुद्रा साहब ने पान की पुडिया मुझे थमा दी थी। उन दिनों प्रॉक्टर का दायित्व और अधिकार क्षेत्र आज के जैसा सीमित नहीं था। वह अपने डिस्क्रीशन पर किसी छात्र को एक्सपैल भी कर सकते थे। उनका व्यक्तित्व कैसा दोहरा रहा होगा।
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