Re: डायरी के पन्ने
बी.ए. में हिन्दी साहित्य, अंग्रेजी साहित्य के साथ मेरा तीसरा विषय दर्शनशास्त्र था। दर्शनशास्त्र पर एक एसे कॉम्पिटिशन हुआ। मेरी एक अच्छी सखी थी कमल कार। उसको प्रथम पुरस्कार मिला और मुझे सांत्वना। एक कप मिला था जो वर्षों हमारे ड्राइंग रूम में सजा रहता था। जर्मन सिल्वर का था। काला-पीला होकर अभी भी कहीं कबाड़े में पड़ा होगा। मैं सम्भवतः पूर्व में वर्णन कर चुकी हूँ मेरी दो घनिष्ठ मित्र थीं – सावित्री गुप्ता और कला मालवीय। हम तीनों यूनिवर्सिटी मैदान में सदा साथ ही चलते- विचरते दीखते इसलिए हमारा नाम त्रिमूर्ति पड़ गया था। हमारे तीन पीरियड एक साथ खाली रहते थे। मैं उन दोनों को अपने साथ घसीटती और युनिवर्सिटी लाइब्रेरी में बड़े चाव से आल्मारी की पुस्तकों का अवलोकन किया करती। पुस्तकालयाध्यक्ष थे बाबू सरयू प्रसाद सक्सेना (नाटक के सन्दर्भ में उल्लिखित विमला सक्सेना के पिता जी)। पुस्तकों के प्रति मेरा जैसा झुकाव था उसे देख श्री सरयू प्रसाद जी मुझ पर बहुत मेहरबान थे। घर जा कर मेरी तारीफ करते और विमला-तारा से कहते कि तुम लोगों को कोर्स के अलावा कुछ भी पढ़ने का शौक नहीं है। हाँ, उल्लेखनीय यह भी है कि मैं केवल हिन्दी की पुस्तकों पर रीझी रहती। धार्मिक ग्रन्थों को छोड़ मैंने उस लाइब्रेरी की लगभग सभी पुस्तकों को छान लिया था। मैं जितनी पुस्तकें घर पर ले जाने को कहती- लाइब्रेरियन साहब बहुत उत्साह से मुझे इश्यू करवा दिया करते थे। मेरे छात्र-जीवन की यह स्मरणीय उपलब्धि है। दादा के देहावसान के छह मास पश्चात् सन् 1938 की बी.ए. की परीक्षा में जीजा जी के हठ से मैंने परीक्षा दी अवश्य, पर दादा के स्वर्गारोहण के फलस्वरूप जो रिक्तता मेरे जीवन में आई – मैंने रो-रो कर परीक्षा दी। कुछ पेपर खाली ही छोड़ आई थी। अनुत्तीर्ण घोषित हुई। तब मुझे इतना पश्चाताप नहीं था जितना दीदी-जीजा और अनन्य सखी सावित्री को हुआ था। उनके पत्र इस तथ्य के साक्षी स्वरूप मेरे पास मौजूद हैं। अभी आज इतना ही!
Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:24 AM.
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