Re: महाभारत के पात्र: कर्ण
महाभारत के पात्र: कर्ण
मैं सूत अधिरथ का पुत्र हूँ। पर रथ चलाने के बदले मेरी कामना होती अस्त्र-शस्त्र चलाने की। द्रोणाचार्य ने मुझे शिक्षा देने से इन्कार कर दिया। क्योंकि गुरु द्रोण मात्र राजपुत्रों और क्षत्रियों को शिक्षा देते हैं। मैं दूर से, वृक्षों के झुरमुट से सौभाग्यशाली राजपुत्रों को देख उनके भाग्य से ईष्या करता और अकेले में स्वयं अभ्याश करता।
तब सोचा करता, सूत पुत्र के अस्त्र-शस्त्र प्रशिक्षण की कामना भूल क्यों है? द्रोणाचार्य के इन्कार के उपरान्त मैंने ने गुरु परशुराम के चरणों में आश्रय ढूँढ लिया। गुरु परशुराम मात्र ब्रहमनों को शिक्षा देते थे। मैंने अपना परिचय छुपा ज्ञान अर्जित किया। अपने को सर्वोतम धनुर्धर बनाने के लिए रात-दिन मेहनत की और अपने उदेश्य में सफल हुआ।
एक दिन थके क्लांत गुरु जी को मैंने अपनी जंघा पर निंद्रा और विश्राम करने कहा। गुरु जी गहरी नींद में सो गए। तब, अचानक एक कीट मेरे जंघा में काटने लगा। पीड़ा से मैं छटपटा उठा। बड़ा दुष्ट कीट था। लगा जैसे मेरे जाँघों के अंदर छेद बना कर अंदर घुसता हीं जा रहा है। बड़ी तेज़ पीड़ा होने लगी। कष्ट और अपने बहते रक्त की परवाह ना करते हुई मैं निश्चल बैठा रहा, ताकि गुरु की निंद्रा में व्यवधान ना पड़े। जैसे पूरे जीवन मेरे अपनों ने ही मुझे अपना नहीं माना, वैसे हीं उस दिन मेरे ही रक्त ने मुझे से दुश्मनी की।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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