13-01-2015, 09:37 PM
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Re: खलील जिब्रान और उनकी रचनायें
खलील जिब्रान
मेले में
एक जगह मेला लगा हुआ था जिसमे भाग लेने के लिए किसी देहात से एक लडकी आयी जिसका चेहरा गुलाब के फूल की तरह खिला हुआ था, जिसके बालों में सूर्यास्त की छटा और होठों पर प्रातःकाल की ताजगी भरी मुस्कान थी.
वहाँ आये हुए मनचले लोगों ने जैसे ही उसे वहां देखा, वे उसके चारों ओर मंडराने लगे. कोई उसके साथ नाचना चाहता था और कोई उसके सम्मान में भोज का प्रस्ताव रख रहा था. वे सभी नौजवान उसके गुलाबी होठों को चूम लेना चाहते थे. आखिर वह एक मेला ही तो था.
लेकिन बेचारी लडकी यह देख कर एक दम सकपका गयी. उसे नवयुवकों का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा. कितनो को उसने बुरा-भला कहा और कुछ को तो चपत भी लगानी पड़ी. हार कर वह उनसे पीछा छुड़ा कर भागी.
घर वापिस आते हुए वह सोचती रही, “मैं तो इनसे तंग आ गयी. कितने असभ्य लोग थे. कितना असह्य था उन लोगों का व्यवहार.”
उस मेरे और उन युवकों के बारे में सोचते हुए उस नवयुवती ने एक वर्ष बिता दिया. इस बार वह फिर मेले में आयी- उसी तरह गुलाब के फूलों जैसे गाल लिए और बालों में सूर्यास्त की सुनहरी किरणे और होठों पर सूर्योदय की मुस्कान लिए हुए.
वही नवयुवक जब उसके सामने आये तो उन्होंने अपनी निगाहें फेर लीं, उसे देखा तक नहीं. उसे सारा दिन आलेले रहना पड़ा. किसी ने उसे पूछा तक नहीं.
शाम को घर लौटते समय वह मन ही मन बड़बड़ाती जा रही थी, “मैं तो तंग आ गयी. कितने असभ्य और जंगली है ये लोग. कितना असह्य था उनका व्यवहार.”
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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