Re: पानी और पर्यावरण
प्रणय भी आज ‘पर्यावरण-चिन्ता’ में कहीं जैसे झुलस-सा रहा है। गीतकार श्रीराम अधीर का एक गीत आज की स्थिति का आकलन कराने में सक्षम है।
‘‘मैं तुम्हारी चंद्रिमा या रश्मियों का क्या करूँगा?
प्यास मेरे कष्ठ में है और पनघट दूरियों पर!
पास में सागर-नदी के
नीर की थाती नहीं है।
लहर या कोई हवा भी,
गीत तक गाती नहीं है!!
मैं मधुर शहनाइयों या उत्सवों तक जा न पाया,
किन्तु सुनता जा रहा हूँ, एक आहट दूरियों पर!’’
नि:सन्देश आज महानगरों और नगरों के रेतीले फ्टोरों में आदमी ‘प्यास मेरेकण्ठ में है’ की विभीषिका झेलने को जैसे अभिशप्त है। पर्यावरण को प्रदूषितकरके आज हम जहाँ पहुँचे हैं, वहाँ केवल ‘कोक’ है; ‘‘शुद्धजल’’ नहीं है।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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