16-10-2014, 10:27 PM
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Re: मुहावरों की कहानी
मेरे युग का मुहावरा > फ़र्क़ नहीं पड़ता
आलेख: अजीत भारती
तुमने जहाँ लिखा है प्यार
वहाँ सड़क लिख दो
फ़र्क़ नहीं पड़ता
मेरे युग का मुहावरा है
फ़र्क़ नहीं पड़ता
(केदारनाथ सिंह)
केदारनाथ सिंह ने अपने समय में ये लिखा था और उसके बाद से तो प्यार की जगह सड़क, नाली, टट्टी, पेशावघर, काँजीहौस… कुछ भी लिख दो, फ़र्क़ नहीं पड़ता जी!
और प्यार का अगर थोड़ा व्यापक अर्थ लें कि प्राणीमात्र से प्यार, तो फिर स्थिति और भी भयावह है। समय नहीं है सोचने का क्योंकि फ़र्क़ नहीं पड़ता।
बदायूँ में इसी प्यार के सड़क पर रौंद दिये गए दो जीवन, और रौंद दिए जाते हैं लगभग रोज़ ही एसे प्यार करने वाले अलग अलग जगहों पर।
हमें क्या? वैसे भी हम बहुत ज़्यादा कर नहीं सकते, हाँ महसूस कर सकते हैं जिसमें कोताही नहीं होनी चाहिए। लेकिन ये बातें आपके गणित की किताब की त्रिकोणमिति नहीं है कि बीस नंबर का नहीं पढ़ेंगे तो भी पास हो जाएँगे।
गणित और जीवन में यही फ़र्क़ है और हमें, आपको, हर इंसान को फ़र्क़ तो पड़ना चाहिए। इराक़ के हालात का फ़र्क़ पड़ना चाहिए, ट्विन टावर पर प्लेन हमले का फ़र्क़ पड़ना चाहिए और घटते हुए लिंगानुपात का भी फ़र्क़ पड़ना चाहिए। हमारी सोच कैसे इन सब से बेपरवाह रह सकती है?
अपने युग के इस मुहावरे को बदलने की ज़रूरत है, फ़र्क़ तो पड़ना चाहिये अगर कोई प्यार की जगह सड़क लिख रहा हो तो।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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