View Single Post
Old 12-07-2013, 05:35 PM   #15
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: यात्रा-संस्मरण

गतांक से आगे
शांतिनाथ मंदिर प्राचीन जैन मंदिरों की खंडित शिल्प-सामग्री को उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में पुनर्संयोजित करके बनाया गया था। इसमें भगवान शांतिनाथ की बारह फुट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा की अतिशय मनोज्ञ प्रतिमा है। मूर्ति के पृष्ठ पर संवत् १०८५ का एक पंक्ति का लेख तथा हिरण का चिह्न बना हुआ है। मंदिर के आँगन में बायीं दीवार पर तीर्थंकर पार्श्वनाथ के सेवक धरणेन्द्र और माता पद्मावती की अत्यन्त सुन्दर मूर्तियाँ बनी हुई हैं। किंवदंती है कि मुगल सम्राट औरंगजेब ने जब इस क्षेत्र की सर्वश्रेष्ठ भगवान शांतिनाथ की मूर्ति को तोड़ने के लिए ज्यों ही मूर्ति की कनिष्ठिका पर टांकी चलाई, उस स्थान से दूध की धार बह निकली और फिर तत्काल ही मधु-मक्खियों ने उसकी सेना पर आक्रमण कर दिया, जिससे घबराकर वह सेना सहित वहाँ से भाग खड़ा हुआ।

शाम होने लगी है और महोबा जाने के लिए आखिरी बस का समय भी होने लगा है। हमने जल्दी-जल्दी खजुराहो की शिल्पाकृतियों की कुछ अनुकृतियाँ बतौर स्मृतिचिह्न खरीद ली हैं और बस में आकर बैठ गए हैं। महोबा है तो केवल चव्वन किलोमीटर, पर यहाँ की बसें धीमी चलती हैं, कुछ सड़कों का भी हाल ठीक नहीं है। आते समय दो घंटे से ऊपर ही लग गए थे।
और इस प्रकार साक्षी हुए हम भारत के इस महान कामतीर्थ के। इसके माध्यम से हमने सभ्यता के आवरण से ढंके-मुँदे अपने आदिम स्वभाव का, उसमें छिपी अपनी आवरण-रहित वासनाओं का सीधा-सच्चा साक्षात्कार किया, उन्हें परखा-जाँचा और समझा; मनुष्य की ऊर्जा के मूल स्रोत को देखा; उस कामवृत्ति को महसूसा, जाना, जो देवत्व की भावभूमि बनाती है और जिससे समस्त मानुषी कलात्मकता का उद्भव होता है। हाँ, यही तो है मानुषी अवचेतना में युगों-युगों का समोया वह कामतीर्थ, जिसके हमने आज दर्शन किए हैं। लौटती यात्रा में मेरे मन में कविवर केदारनाथ अग्रवाल की प्रसिद्ध कविता `खजुराहो के मन्दिर' की ये पंक्तियाँ गूँज रही हैं -
`चंदेलों की कला-प्रेम की देन देवताओं के मन्दिर बने हुए अब भी अनिंद्य जो खडे हुए हैं खजुराहो में याद दिलाते हैं हमको उस गए समय की जब पुरूषों ने उमड़-घुमड़ कर
रोमांचित होकर समुद्र-सा
कुच-कटाक्ष वैभव विलास की
कला-केलि की कामनियों को
बाहु-पाश में बांध लिया था
और भोग-संभोग सुरा का सरस पानकर
देश-काल को, जरा-मरण को भुला दिया था ।'
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote