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Originally Posted by sikandar
किसी मुज्जमे की सीढियों पे एक बुज़ुर्ग को तन्हा बैठे देखा (मुज्जमे- शोपिंग काम्प्लेक्स)खामोश लब थरथाराते हाथ माथे से पसीना टपकते देखा
सोच रहे होगे कैसे गुज़रे सरे आज़-इखलास ज़िन्दगी के (आज़-desire )
हर भूली बिसरी याद को उस एक बसर मे स्मिटते देखा
बचपना फिर जवानी फिर बुढ़ापा कोह्नाह-मशक हालत ( कोह्नाह-मशक-- experienced )हर असबाब को एक गहरी साँस मे टटुलते देखा
एक अबरो एक हया एक अदगी एक दुआ
बे परवाह गुज़रते नोजवानो से अपनी सादगी छुपाते देखा
सोचा जाके पूछों की क्योँ बैठे है यूँ तन्हा एकेले
पर हर रहगुज़र के बरीके से नाश-ओ-नसीर समझते देखा
क्या अच्छा किया क्या बुरा किया कोन से रिश्ते निभाए पूरे
हर एक अधूरे पूरे फ़र्ज़ इम्तिहान उम्मीद का इसबात जुटाते देखा (इसबात-proof )
कभी लगा आसूदाह सा कभी लगा आशुफ्तः सा (आसूदाह-satisfied आशुफ्तः-confused)
मुब्तादा इबारत के इबर्के-उबाल को बेकाम-ओ-कास्ते देखा (मुब्तादा--principle, इबारत-[size="2"]experience,इबर्के- perception बेकाम-ओ-कास्ते--expresing) [/size]
किसी मुज्जमे की सीढियों पे एक बुज़ुर्ग को तन्हा बैठे देखा
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सुभानअल्लाह ! जिँदगी के नफे - नुकसान का वास्तविक चिंतन मुज्जमेँ की सीढ़ियोँ से भला और कहाँ बेहतर हो सकता है । जिँदगी कभी आसूदाह सी कभी आशुफ्तः सी ही तो है तभी तो हमेँ मुकम्मल जहाँ नहीँ मिलता ।