Re: पानी और पर्यावरण
दोहाकार श्री हरेराम ‘समीप’ का एक और मार्मिक दोहा, मैं अपने सुधी पाठकोंके लिए यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ, चूँकि इस दोहे में एक सामयिक चिन्ता केसाथ-साथ चुभती हुई चेतावनी भी है।
‘‘तू बारिश के वास्ते,
आसमान मत कोस!
जब धरती बंजर करी,
तब न हुआ अफसोस!!’’
कंकरीट के जंगल उगाने के लिए प्रकृति द्वारा उपहार में दिए गए ‘हरे-भरेजंगल’ कटवाने वाले धन के भूखे आदमी को ‘जब धरती बंजर करी’ के बाद ‘तब न हुआअफसोस’ की लताड़ लगाने वाला कवि सचमुच बदलते हुए ‘वर्षा-चक्र’ से उत्पन्नपर्यावरणीय संकट की ओर हमारा ध्यान अपने दोहे से खींचने में सफल हुआ है।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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