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Old 16-04-2012, 09:47 PM   #61
anoop
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Default Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)

ज्ञान, कर्म, बुद्धि, धृति और सुख
भगवान-
सुख, ज्ञान, कर्म आदि अर्जुन
सात्विक, राजस, तामस हों सुन
जिससे ब्रह्ममय दिउखे जहान
वह ज्ञान सात्विक और महान
जिससे जग ब्रह्ममय नहीं लगे
वह होता राजस ज्ञान, सखे
जिससे जग लगे न नाशवान
अर्जुन, तामस वह ज्ञान जान
कर्त्तापन का तजकर गुमान
फ़ल की इच्छा से हो अजान
जो कर्म किया जाता, अर्जुन
वह कर्म सात्विक होता सुन
कर्त्तापन का ले कर गुमान
फ़ल ही में अपना लगा ध्यान
अर्जुन, जो कर्म किया जाता है
वह कर्म राजस कहलाता है
जिसका प्रेरक हो नहीं ज्ञान
बिन-हित-अनहित का किए ध्यान
अर्जुन जो कर्म किया जाता
वह कर्म है तामस कहलाता
है ज्ञान से प्रेरित होता जो
अर्जुन, वह कर्त्ता सात्विक हो
जो कर्म से प्रेरित हो, अर्जुन
वह कर्त्ता राजस होता सुन
अर्जुन, हो जो अज्ञान के वश
वह कर्त्ता होता है तामस
है ज्ञानमय बुद्धि होती जो
अर्जुन, सात्विक कहलाती सो
जो कर्मों से प्रेरी जाती
वह बुद्धि राजस कहलाती
जो बुद्धि हो अज्ञान के वश
अर्जुन, वह बुद्धि है तामस
जिससे मति भ्रमित न हो पाती
वह धृति है सात्विक कहलाती
जो धर्म, अर्थ और कर्ममयी
वह धृति राजस कही गयी
जो भय-भ्रम-चिन्तामय, अर्जुन
वह धृति होती है तामस सुन
अर्जुन, जो ज्ञान से उपजता
वह सुख सात्विक कहलाता
जो केवल कर्म से उपजा हो
है राजस सुख कहलाता वो
जिसमें केवल निद्रा-आलस
ऐसा सुख होता है तामस
अर्जुन, स्वर्ग, नरक, भू पर
है हुआ न कोई ऐसा नर
मायाकृत सत, रज, तम, गुण जो
भोगता नहीं इन तीनों को
आधार बना कर कर्मों का
है किया विभाजन वर्णों का
इन कर्मों के आधार पर हीं
है दिया नाम वर्णों को भी
बाँटना धर्म, बाँटना ज्ञान
ब्राह्मण के पावन कर्म जान
जन-जीवन, धन-रक्षा व दान
ये कर्म क्षत्रिय के हैं महान
वैश्यों का है व्यापार कर्म
शुद्रों का सेवा-कर्म धर्म
जिस नर का जो भी हुआ कर्म
यदि उसे समझता हुआ धर्म
जो तन-मन से करता, अर्जुन
वह परम सिद्धि पाता है सुन
नर निज स्वाभाविक कर्म कमा
अर्जुन, मुझको सकता है पा
जो पाले अपना धर्म सदा
करता स्वाभाविक कर्म सदा
वह नर पाता है सुख-ही-सुख
उस नर को प्राप्त न होता दुख
जिस नर के हैं पावन विचार
जिसके जीवन में सदाचार
जो राग-द्वेष को मार चुका
तन-मन पर कर अधिकार चुका
जो काम, क्रोध, मद, लोभ रहित
जो कभी नहीं होता विचलित
वह मेरा प्यार सदा पाता
वह नर भव-सागर तर जाता
निष्काम कर्म-योगी, अर्जुन
पाता अविनाशी पद है सुन
जो नर तन-मन से मेरा हो
सब कर्म करे अर्पण मुझको
उस नर के पास न आए दुख
वह नर पाता है सुख ही सुख
तू भी तन-मन से मेरा हो
कर कर्म सभी अर्पण मुझको
सुख पाएगा, दुख छूटेगा
हर कर्म का बंधन टूटेगा
तदि सोचे यह तू भ्रम में पड़
मैं भाग चलूँ रण को तजकर
तो भी रण से न विरत होगा
तू निजपन-वश रण-रत होगा
निजपन-निजधर्म लड़ाएगा
अर्जुन, बचकर कहाँ जाएगा
तुझको लड़ना निश्चित होगा
यह रण करना निश्चित होगा
मैं ही जग का हूँ परम-पिता
मैं ही जग का कर्त्ता-धर्त्ता
जो मेरी शरण गहेगा तू
चिन्ता से दूर रहेगा तू
अब तुझे लगे जो भी हितकर
हे अर्जुन! तू वैसा ही कर
फिर भी मैं अपना तुझे जान
इक बात कहूँ, ले उसे मान
अपने मन से संशय तज कर
उठ हो जा लड़ने को तत्पर

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