Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें उम्र भर के लिए।
न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब है, इस सफ़र के लिए।
खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही,
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए।
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए।
तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर को,
ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए।
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
- दुश्यन्त कुमार
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