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Old 23-09-2011, 08:05 PM   #8
anoop
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Default Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ

कैसे मंजर सामने आने लगें हैं,
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कँवल के फ़ूल कुम्हलाने लगे हैं।
वो सलीबों के करीब आए तो हमको,
कायदे-कानून समझाने लगे हैं।
एक कब्रिस्तान में घर मिल रहा है,
जिसमें तहखानों से तहखाने लगे हैं।
मछलियों में अब खलबली है, अब सफ़ीने,
उस तरफ़ जाने से कतराने लगे हैं।
मौलवी से डाँट खा कर अहले मकतब,
फ़िर उसी आयत को दोहराने लगे हैं।
अब नयी तहजीब के पेशे-नजर हम,
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं।
- दुश्यन्त कुमार
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