Re: पानी और पर्यावरण
‘‘कह-कह कर थक गए सुधी-जन, जल ही जीवन है।
किन्तु किसी ने बात न मानी, क्या पागलपन है!!
सूख रहे जल-स्रोत धरा के
नदियाँ रेत हुई
अंधकूप बन गए कुँए
बावड़ियाँ खेत हुई
तल में देख दरारें करता, सर भी क्रन्दन है!
काट-काट कर पेड़ सभी जंगल मैदान किए
रूठे मेघ, जिन्होंने भू को
अगणित दान दिए
मानव! तेरे स्वार्थ का, शत-शत अभिनन्दन है!
किया अपव्यय पानी का
संरक्षण नहीं किया
फेंक-फेंक कर कचरा सब
नदियों को पाट दिया
अपने हाथों किया मरूस्थल अपना उपवन है।
चलो बनाएँ बाँध नदी पर
कुँए, तड़ाग निखारें
जो भी जल का करें अपव्यय
समझाएँ, फटकारें
यों, फिर से यह मरू बन सकता, नन्दन-कानन है!’’
नि:सन्देह, आज के कवि डॉ. ब्रहमजीत गौतम का यह गीत विश्व भर के पर्यावरण -प्रेमियों के लिए जो सन्देश दे रहा है, वह गीत के ‘अन्तिम छन्द’ में ‘‘समझाएँ, फटकारें’’ में निहित है। समझदार ‘भूले हुओं’ को समझाना होगा औरना समझ ‘अक्खड़ों’ को फटकारना होगा।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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