Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
यह भी एक दौर था। कुछ गांवों में यह आज भी जीवित है पर ज्यादातर गांवों में समाप्त हो गईं। जिसका मुख्य वजह शराब को माना जा रहा है। एक से एक अश्लील होली के गीते गाये जाते और महिलाओं का नाम ले ले कर अश्लील फगुआ सुनाया जाता। ‘‘ऐ मोहन सिंह ऐ हो तनि मैगी (पत्नी) के दे हो।’’ ‘‘इम साल फगुआ ऐसी गेल पुआ पकैते ..... जर गेल।’’ एक गडा़ड़ी दाल चाउर एक गडा़ड़ी कोदो......... मोहन सिंह ने हुक्म दिया रमेश के बीबी को .....। इससे भी अश्लील फगुआ बिना किसी भेद भाव के होती। दादा, बाप बेटा सब साथ साथ। बंधन टूट जाता। जिनके घर दामाद आये हुए होते उनके यहां स्पेशल होली होती। दामाद को घर से बाहर निकाला जाता और ढोलक की थाप पर होली होती। फगुआ पढ़ा जाता। फगुआ पढ़ने मे एक्सपर्ट माने जाते थे छोटन चाचा। मेहमान को देख शुरू हो जाते।
पर फागुन की यह मादकता मेरे लिए नहीं होती। मैं होलैया के साथ तो होता पर मन हमेशा कहीं और होता। हर छत पर नजर रीना को तलाशती पर वह कहीं नहीं दिखती। वहां तो एक दम नहीं जहां होली हो रही हो। फागुन के अश्लील गीतों के साथ शायद वह मेरा सामना नहीं करना चाहती। यह शर्म थी गांव की उस गोरी का जिसने प्यार से अपना मन रंग लिया था। पर मैं भी कहां बाज आने वाला। कई चक्कर लगाता उसकी गली का। होली गाता हुआ निकलता पर वह नजर नहीं आती। बहुत गुस्सा आता और रात नौ बजे तक मैं उसकी गली के सैकड़ों चक्कर किसी ने किसी बहाने लगा आता। दोस्त पूछ ही लेते कहां गायब हो जाते हो, बहाना कुछ से कुछ बना देता। तीन चार फागुन गुजर गए और रीना को रंग लगाने का मेरे मन मे उठा अरमानों का तूफान घर जा कर ज्वारभाटे की तरह हीलोरे मार मार के थक जाती। फिर शुरू हो जाता रूठने का सिलसिला।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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