सफ़र
माफ़ी चाहती हूँ अपने पाठकों से इसबार बहुत दिनों बाद अपनी लिखी कविता आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रही हूँ
ज़िन्दगी के सफ़र में ऐ हमसफ़र
टिकीं रहीं आँखे उनींदी राहों पर
जो कभी न थी भरने वाली राहें
उम्मीदों के दामन को थाम सोख लिए आंसू
करली पैरवी मन ने, उनकी बदसलूकी को उनका प्यार समझकर
हम सफ़र जीवन का सुहाना बनाते चले गए ,
खुद को किया बर्बाद उनको आबाद करते चले गए
न थी जरुरतें उन्हें हमारे प्यार की
,पर हम तो खुद को उनका दीवाना बनाते चले गए
ज़िन्दगी के सफ़र में मिले चाहे कितने भी कांटे
मानकर फूल उसे अपनाते चले गए
एक अर्ज़ सुन लेना मेरी भी ऐ ज़िन्दगी
फूल बिछा देना ज़रा उनकी राहों में
क्यूंकि उनकी राह के काँटों के तलबगार यहाँ बैठे हम हैं
सुख हो तुम्हारे दुःख हों हमारे इस ज़िन्दगी के सफ़र में
अब भी दिल ये ही दुवा करता है
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