Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
‘‘इहे परम्परे है तो तोरा कहला से बदल जइते। आखिर हम बुद्वि के खा ही और तों परिश्रम कें।’’ पंडित जी ने तर्क दिया। दरअसल यह लड़ाई कर्मकांडों में दिए गए दान इत्यादि के वर्तनों और फिर अंत में सभी कर्मकांडों को खत्म करने की फीस को लेकर हो रही थी। परंपरा यही थी। पंडित जी जो मर्जी दें वहीं नाई का होता है जबकि मेहनत का सारा काम नाई ही करते है। सीताराम जी इसी को लेकर झगड़ रहे है।
‘‘सब काम दौड़ दौड़ कर करी हम और खाई घरी पंडित जी, वाह रे परंपरा।’’ सीताराम नाई कप्युनिष्ट पार्टी का मेमबर था और वह सामंतबाद से लेकर वर्गसंधर्ष की बात अक्सर किया करता और इसी को लेकर वह उलझ रहा था। गांव के चौक चौराहे पर यह बाजार मे धूम धूम कर वह बाल दाढ़ी बनाता था। उसके हाथ में एक एक फिट का काठ का वक्सा रहता था जिसमें अस्तुरा से लेकर सब समान रखे होते।
खैर, फिर काफी हील-हुज्जत के बाद पंडित जी ने अपने दान के समानों में से सीताराम को कुछ दिया। दान और श्राद्धकर्म की भी अजीब परंपरा है और इस अनुभव ने मेरे मन में नकारात्मक विचार भर दिया है। एकादशा के दिन दान को लेकर मान्यता है कि पंडित जी को दान करने से मृतक को उस सामानों का सुख मिलता है। इसी को लेकर एक एक सामान जुटाया जाता है। वर्तन-बासन, फोल्डींग, चादर, छाता, धोती इत्यादी। बाबा खैनी खाते थे और खैनी नहीं होने पर रामू को बजारा दौड़ाया गया खैनी लाने। इन सामानों का अपना एक नेटवर्क है और दान के सामान का सुख पंडित जी नही उठा पाते।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
Last edited by rajnish manga; 27-09-2014 at 10:54 PM.
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