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Old 07-09-2011, 10:09 AM   #2
Sikandar_Khan
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Default Re: पांच पापी (उपन्यास)

साधूराम होतचन्दानी के बंगले के ड्राइंगरूम के तमाम खिड़कियां दरवाजे बन्द थे। भीतर उसके सामने एक आदमी ज्वेलर ग्लास आंख से लगाए मेज पर अपने सामने बिखरे, चमचम करते हीरे जवाहरात परख रहा था और दूसरा आदमी होतचन्दानी के पहलू में बैठा होतचन्दानी की ही तरह अपलक हीरे जवाहरात परखे जाते देख रहा था।

हीरों के पारखी का नाम विवेक जालान था। वह एक लगभग तीस साल का सुन्दर युवक था।

हीरे जवाहरात जिनमें अधिकतर मानक और नीलम थे—साधूराम होतचन्दानी की मिल्कियत थे जोकि पचास से ऊपर आयु का निहायत हट्टा-कट्टा, तन्दुरुस्त आदमी था। उस उम्र में भी न तो वह चश्मा लगाता था, न उसके सिर का कोई बाल सफेद था और न ही उसके चेहरे पर बुढ़ापे के आगमन की बल्कि पहुंच चुके होने की—चुगली करने वाली कोई झुर्री थी। शायद वह नेपाल की—जहां कि उसने अपनी आधी जिन्दगी गुजारी थी—ठण्डी, स्वास्थ्यदायक आबोहवा का असर था।

तीसरे—होतचन्दानी के पहलू में बैठे—आदमी का नाम दामोदर खेतान था और वह परखे जा रहे माल का सम्भावित खरीददार था। वह कोई चालीस साल का भारी-भरकम आदमी था जोकि उस बन्द खिड़कियों और दरवाजों वाले कमरे में भी आंखों पर स्याह काला चश्मा लगाए था।

दोपहर बाद से हीरे जवाहरात की परख का वह जटिल काम चल रहा था और अब शाम होने को आ रही थी। तब से अब तक विवेक जालान ने कभी अपने काम से सिर उठाया था तो नया सिगरेट सुलगाने के लिए या नेपाली बियर का दर्जा रखने वाले जौ से बने मादक तरल पदार्थ झांग का घूंट भरने के लिए जोकि होतचन्दानी का नेपाली नौकर हनुमान अपने मालिक के इशारे पर या इशारे के बिना भी; सबको सर्व कर देता था।

एक बात विवेक जालान के बिना तब तक मुंह खोले ही साफ पता लग रही थी।

वो हीरे जवाहरात मालिक द्वारा बड़े यत्न से छांट छांटकर जमा किए गए थे और यकीनन बेशकीमती थे।

हर स्टोन की परख के बाद विवेक जालान करीब पड़ी एक कापी पर कुछ आंकड़े नोट करता जाता था और उन आंकड़ों के कालम की लम्बाई बढ़ती ही जा रही थी।

अन्त में उसने ज्वेलर ग्लास आंख से हटाकर एक ओर रख दिया और अपने सामने पड़ा जौहरियों वाला नाजुक तराजू भी परे सरका दिया।

साधूराम होतचन्दानी और दामोदर खेतान ने आशापूर्ण नेत्रों से उसकी तरफ देखा।

‘जो’—विवेक जालान खंखारकर गला साफ करता हुआ बोला—‘एक कैरेट से कम वजन के स्टोन हैं, उनकी कीमत का मैं महज अन्दाजा लगाऊंगा।’

‘ठीक है।’—होतचन्दानी बोला।

‘ऐसे स्टोन कितने हैं?’—दामोदर खेतान ने पूछा।

विवेक जालान ने कापी पर लिखे आंकड़ों पर निगाह दौड़ाई और बोला—‘पचपन। मैं इनको भी बाकी स्टोंस की तरह जाचूंगा तो रात हो जाएगी।’

‘जरूरत नहीं।’—खेतान बोला—‘उनकी कीमत का मुझे अन्दाजा मंजूर है।’

‘मुझे भी।’—होतचन्दानी बोला।

विवेक ने सहमति में सिर हिलाया; उसने एक नया सिगरेट सुलगा लिया और पेंसिल लेकर कापी में लिखे आंकड़ों से उलझ गया।

अन्त में उसने कॉपी पेंसिल परे रख दी।

‘क्या परखा?’—दामोदर खेतान उतावले स्वर में बोला।

उत्तर देने के स्थान पर विवेक ने सिगरेट का एक लम्बा कश लगाया। जिस काम को वह अभी अन्जाम देकर हटा था उसे करने के लिए उसे दामोदर खेतान ने चुना था क्योंकि, बकौल उसके, वहां परदेश में किसी स्थानीय नेपाली जौहरी के मुकाबले में उसे अपने ‘जात भाई’ का ज्यादा भरोसा था।

अपने कथित जात भाई से विवेक की जुम्मा जुम्मा आठ रोज की वाकफियत थी। होटल क्रिस्टल में—जिसके एक कमरे में विवेक रहता था—वह पिछले ही महीने आया था। काठमाण्डू के क्रिस्टल जैसे मध्यम दर्जे के होटल में एकाध दिन के आवास के बाद ही हिन्दोस्तानियों की—वो भी जात भाइयों की—वाकफियत हो जाना मामूली बात थी। दामोदर खेतान ने अपने आपको एक व्यापारी बताया था जोकि नेपाल में किसी व्यापार की—किसी भी व्यापार की—सम्भावनाओं पर विचार करने के लिए काठमाण्डू आया था। बकौल उसके भारत में उसका होजियरी का बिजनेस था।

दामोदर खेतान नाम के उस शख्स को बातचीत का कुछ ऐसा ढंग आता था कि चाहकर भी विवेक अपने बारे में उससे कोई सीक्रेट नहीं रख पाया था। अपने बारे में वह यह तक नहीं छुपा पाया था कि अपने घर से, अपने वतन से इतनी दूर परदेस में इन दिनों वो बेकार था और उसकी आर्थिक स्थिति इतनी शोचनीय हो चली थी आइन्दा दिनों में उसे अपने होटल का बिल भरना भी दूभर लग सकता था। दामोदर खेतान बतौर ट्रेंड जियोलोजिस्ट और जैम एक्सपर्ट उसकी योग्यताओं से बहुत प्रभावित हुए था और उसने आशा व्यक्त की थी कि विवेक जैसे ‘गुणी’ आदमी को नेपाली या हिन्दोस्तान में कोई नयी नौकरी ढूंढ़ने में दिक्कत नहीं होने वाली थी। तब विवेक ने उसे बताया था कि नयी नौकरी की आफर उसे मिल चुकी थी और वह उसी को ज्वाइन करने के लिए सोमवार को दिल्ली जा रहा था।

अब उस रोज दामोदर खेतान के कहने पर पांच हजार रुपये की निर्धारित फीस पर वो वहां साधूराम होतचन्दानी के बंगले में उसके जवाहरात की परख करके उसकी कीमत लगाने के लिए हाजिर हुआ था।

होतचन्दानी से भी विवेक नावाकिफ नहीं था—न सिर्फ नावाकिफ नहीं था, बल्कि खेतान के मुकाबले में उससे कहीं ज्यादा, कहीं पुराना वाकिफ था। हकीकत होतचन्दानी ही उसकी मौजूदा बेकारी की वजह था। होतचन्दानी वो शख्स था जिसके पार्टनरशिप के झांसे में आकर वह दिल्ली छोड़कर नेपाल आया था और जिससे धोखा खाकर वो अपनी मौजूदा दुश्वारी की हालत में पहुंचा था।

‘क्या परखा?’—दामोदर खेतान ने पूर्ववत् उतावले स्वर में अपना सवाल दोहराया।

‘मैं सिर्फ अपना जाती अन्दाजा बता सकता हूं।’—विवेक बोला।

‘ठीक है।’—होतचन्दानी तनिक तिक्तताभरे स्वर में बोला—‘जवाहरात का सारा धन्धा ही जाती अन्दाजों पर मुनइसर होता है। औरतों और घड़ियों की तरह जैम एक्सपर्ट्स में भी काफी इत्तफाक नहीं होता। एक ही हीरा दो अलग-अलग पारखियों को दिखाओ, कभी ऐसा नहीं होगा कि दोनों उसकी एक ही कीमत बतायें। बहरहाल मेरे में और दामोदर खेतान में यह फैसला पहले ही हो चुका है कि हम दोनों को तुम्हारा अन्दाजा मंजूर होगा। अब बोलो क्या है तुम्हारा अन्दाजा?’

‘उनचास लाख तिहत्तर हजार चार सौ रुपये।’

‘इन्डियन या नेपाली?’—दामोदर खेतान बोला।

‘इन्डियन।’
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