Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
बाल-बच्चों के साथ मुँह में जाली लगाये बैठा रहूँ। धनिया बहू को उसके साथ भेजने पर राज़ी न हुई। झुनिया का मन भी अभी कुछ दिन यहाँ रहने का था। तय हुआ कि गोबर अकेला ही जाय। दूसरे दिन प्रातःकाल गोबर सबसे बिदा होकर लखनऊ चला। होरी उसे गाँव के बाहर तक पहुँचाने आया। गोबर के प्रति इतना प्रेम उसे कभी न हुआ था। जब गोबर उसके चरणों पर झुका, तो होरी रो पड़ा, मानो फिर उसे पुत्र के दर्शन न होंगे। उसकी आत्मा में उल्लास था, गर्व था, संकल्प था। पुन्न से यह श्रद्धा और स्नेह पाकर वह तेजवान हो गया है, विशाल हो गया है। कई दिन पहले उस पर जो अवसाद-सा छा गया था, एक अन्धकार-सा, जहाँ वह अपना मार्ग भूल जाता था, वहाँ अब उत्साह है और प्रकाश है। रूपा अपनी ससूराल में ख़ुश थी। जिस दशा में उसका बालपन बीता था, उसमें पैसा सबसे क़ीमती चीज़ थी। मन में कितनी साधें थीं, जो मन में ही घुट-घुटकर रह गयी थीं। वह अब उन्हें पूरा कर रही थी और रामसेवक अधेड़ होकर भी जवान हो गया था। रूपा के लिए वह पति था, उसके जवान, अधेड़ या बूढ़े होने से उसकी नारी-भावना में कोई अन्तर न आ सकता था। उसकी यह भावना पति के रंग-रूप या उम्र पर आश्रित न थी, उसकी बुनियाद इससे बहुत गहरी थी, श्वेत परम्पराओं की तह में, जो केवल किसी भूकम्प से ही हिल सकती थीं। उसका यौवन अपने ही में मस्त था, वह अपने ही लिए अपना बनाव-सिंगार करती थी और आप ही ख़ुश होती थी। रामसेवक के लिए उसका दूसरा रूप था। तब वह गृहिणी बन जाती थी, घर के कामकाज में लगी हुई। अपनी जवानी दिखाकर उसे लज्जा या चिन्ता में न डालना चाहती थी। किसी तरह की अपूणर्ता का भाव उसके मन में न आता था। अनाज से भरे हुए बखार और गाँव से सिवान तक फैले हुए खेत और द्वार पर ढोरों की क़तारें और किसी प्रकार की अपूर्णता को उसके अन्दर आने ही न देती थीं। और उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा थी अपने घरवालों की ख़ुशी देखना। उनकी ग़रीबी कैसे दूर कर दे? उस गाय की याद अभी तक उसके दिल में हरी थी, जो मेहमान की तरह आयी थी और सब को रोता छोड़कर चली गयी थी। वह स्मृति इतने दिनों के बाद अब और भी मृदु हो गयी थी। अभी उसका निजत्व इस नये घर में न जम पाया था। वही पुराना घर उसका अपना घर था। वहीं के लोग अपने आत्मीय थे, उन्हीं का दुःख उसका दुःख और उन्हीं का सुख उसका सुख था। इस द्वार पर ढोरों का एक रेवड़ देखकर उसे वह हर्ष न हो सकता था, जो अपने द्वार पर एक गाय देखकर होता। उस के दादा की यह लालसा कभी पूरी न हुई। जिस दिन वह गाय आयी थी, उन्हें कितना उछाह हुआ था, जैसे आकाश से कोई देवी आ गयी हो। तब से फिर उन्हें इतनी समाई ही न हुई कि कोई दूसरी गाय लाते, पर वह जानती थी, आज भी वह लालसा होरी के मन में उतनी ही सजग है। अबकी यह जायगी, तो साथ वह धौरी गाय ज़रूर लेती जायगी। नहीं, अपने आदमी से क्यों न भेजवा दे। रामसेवक से पूछने की देर थी। मंज़ूरी हो गयी, और दूसरे दिन एक अहीर के मारफ़त रूपा ने गाय भेज दी। अहीर से कहा, दादा से कह देना, मंगल के दूध पीने के लिए भेजी है। होरी भी गाय लेने की फ़िक्र में था। यों अभी उसे गाय की कोई जल्दी न थी; मगर मंगल यहीं है और बिना दूध के कैसे रह सकता है! रुपए मिलते ही वह सबसे पहले गाय लेगा। मंगल अब केवल उसका पोता नहीं है, केवल गोबर का बेटा नहीं है, मालती देवी का खिलौना भी है। उसका लालन-पालन उसी तरह का होना चाहिए। मगर रुपये कहाँ से आयें। संयोग से उसी दिन एक ठीकेदार ने सड़क के लिए गाँव के ऊसर में कंकड़ की खुदाई शुरू की। होरी ने सुना तो चट-पट वहाँ जा पहुँचा, और आठ आने रोज़ पर खुदाई करने लगा; अगर यह काम दो महीने भी टिक गया, तो गाय भर को रुपए मिल जायँगे। दिन-भर लू और धूप में काम करने के बाद वह घर आता, तो बिलकुल मरा हुआ; पर अवसाद का नाम नहीं। उसी उत्साह से दूसरे दिन काम करने जाता। रात को भी खाना खा कर डिब्बी के सामने बैठ जाता, और सुतली कातता। कहीं बारह-एक बजे सोने जाता। धनिया भी पगला गयी थी, उसे इतनी मेहनत करने से रोकने के बदले ख़ुद उसके साथ बैठी-बैठी सुतली कातती। गाय तो लेनी ही है, रामसेवक के रुपए भी तो अदा करने हैं। गोबर कह गया है। उसे बड़ी चिन्ता है। रात के बारह बज गये थे। दोनों बैठे सुतली कात रहे थे। धनिया ने कहा — तुम्हें नींद आती हो तो जाके सो रहो। भोरे फिर तो काम करना है। होरी ने आसमान की ओर देखा — चला जाऊँगा। अभी तो दस बजे होंगे। तू जा, सो रह।
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