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Old 11-01-2011, 06:39 AM   #266
ABHAY
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Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

था। काँपती हुई आवाज़ से बोली — कैसा जी है तुम्हारा? होरी ने अस्थिर आँखों से देखा और बोला — तुम आ गये गोबर? मैंने मंगल के लिये गाय ले ली है। वह खड़ी है, देखो। धनिया ने मौत की सूरत देखी थी। उसे पहचानती थी। उसे दबे पाँव आते भी देखा था, आँधी की तरह भी देखा था। उसके सामने सास मरी, ससुर मरा, अपने दो बालक मरे, गाँव के पचासों आदमी मरे। प्राण में एक धक्का-सा लगा। वह आधार जिस पर जीवन टिका हुआ था, जैसे खिसका जा रहा था, लेकिन नहीं यह धैर्य का समय है, उसकी शंका निमूर्ल है, लू लग गयी है, उसी से अचेत हो गये हैं। उमड़ते हुए आँसुओं को रोककर बोली — मेरी ओर देखो, मैं हूँ, क्या मुझे नहीं पहचानते, होरी की चेतना लौटी। मृत्यु समीप आ गयी थी; आग दहकनेवाली थी। धुँआँ शान्त हो गया था। धनिया को दीन आँखों से देखा, दोनों कोनों से आँसू की दो बूँदें ढुलक पड़ी। क्षीण स्वर में बोला — मेरा कहा सुना माफ़ करना धनियाँ! अब जाता हूँ। गाय की लालसा मन में ही रह गयी। अब तो यहाँ के रुपए क्रिया-करम में जायँगे। रो मत धनिया, अब कब तक जिलायेगी? सब दुर्दशा तो हो गयी। अब मरने दे। और उसकी आँखें फिर बन्द हो गयीं। उसी वक़्त हीरा और शोभा डोली लेकर पहुँच गये। होरी को उठाकर डोली में लिटाया और गाँव की ओर चले। गाँव में यह ख़बर हवा की तरह फैल गयी। सारा गाँव जमा हो गया। होरी खाट पर पड़ा शायद सब कुछ देखता था, सब कुछ समझता था; पर ज़बान बन्द हो गयी थी। हाँ, उसकी आँखों से बहते हुए आँसू बतला रहे थे कि मोह का बन्धन तोड़ना कितना कठिन हो रहा है। जो कुछ अपने से नहीं बन पड़ा, उसी के दुःख का नाम तो मोह है। पाले हुए कर्तव्य और निपटाये हुए कामों का क्या मोह! मोह तो उन अनाथों को छोड़ जाने में है, जिनके साथ हम अपना कर्तव्य न निभा सके; उन अधूरे मंसूबों में है, जिन्हें हम न पूरा कर सके। मगर सब कुछ समझकर भी धनिया आशा की मिटती हुई छाया को पकड़े हुए थी। आँखों से आँसू गिर रहे थे, मगर यन्त्र की भाँति दौड़-दौड़कर कभी आम भूनकर पना बनाती, कभी होरी की देह में गेहूँ की भूसी की मालिश करती। क्या करे, पैसे नहीं हैं, नहीं किसी को भेजकर डाक्टर बुलाती। हीरा ने रोते हुए कहा — भाभी, दिल कड़ा करो, गो-दान करा दो, दादा चले। धनिया ने उसकी ओर तिरस्कार की आँखों से देखा। अब वह दिल को और कितना कठोर करे? अपने पति के प्रति उसका जो कर्म है, क्या वह उसको बताना पड़ेगा? जो जीवन का संगी था उसके नाम को रोना ही क्या उसका धर्म है? और कई आवाज़ें आयीं — हाँ गो-दान करा दो, अब यही समय है। धनिया यन्त्र की भाँति उठी, आज जो सुतली बेची थी उसके बीस आने पैसे लायी और पति के ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली — महराज, घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गो-दान है। और पछाड़ खाकर गिर पड़ी।
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