Re: विभाजन कथा: टोबा टेक सिंह
बिशन सिंह ने उस ख़ुदा से कई मर्तबा बड़ी मिन्नत-समाजत से कहा कि वह हुक़्म दे दें ताकि झंझट ख़त्म हो, मगर ख़ुदा बहुत मसरूफ़ था, इसलिए कि उसे और बे-शुमार हुक़्म देने थे।
एक दिन तंग आकर बिशन सिंह खुद़ा पर बरस पड़ा, "औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानां दि मुँग दि दाल आफ वाहे गुरु जी दा खालस एंड वाहे गुरु जी दि फ़तह!" इसका शायद मतलब था कि तुम मुसलमानों के ख़ुदा हो, सिखों के खुद़ा होते तो ज़रूर मेरी सुनते।
तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेक सिंह का एक मुसलमान जो बिशन सिंह का दोस्त था, मुलाक़ात के लिए आया, मुसलमान दोस्त पहले कभी नहीं आया था। जब बिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ़ हट गया, फिर वापस जाने लगा मगर सिपाहियों ने उसे रोका, "यह तुमसे मिलने आया है, तुम्हारा दोस्त फज़लदीन है!"
बिशन सिंह ने फज़लदीन को एक नज़र देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा।
फज़लदीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा, "मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूँ लेकिन फ़ुरसत ही न मिली, तुम्हारे सब आदमी ख़ैरियत से हिंदुस्तान चले गए थे, मुझसे जितनी मदद हो सकी, मैंने की तुम्हारी बेटी रूपकौर..." वह कहते-कहते रुक गया।
बिशन सिंह कुछ याद करने लगा, "बेटी रूपकौर..."
फज़लदीन ने रुक-रुककर कहा, "हाँ, वह, वह भी ठीक-ठाक है, उनके साथ ही चली गई थी!"
बिशन सिंह खामोश रहा।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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