Re: डार्क सेंट की पाठशाला
प्रतिशोध की भावना न रखें
जिस रोज अजमल कसाब को फांसी दी गई उस रोज कुछ इलाकों में दीवाली सा माहौल देखा गया। यह हमारे भीतर छुपी प्रतिशोध की भावना की अभिव्यक्ति थी जो एक आम प्रतिक्रिया है। सदियों से यह दुष्चक्र चला आ रहा है। अपराध और सजा। समाज में कहीं भी अपराध होता है तो सभी के मन में पहला भाव यही उठता है कि अपराधी को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। फिल्मों में और टीवी सीरियलों में भी यही डायलॉग होता है। इससे एक मनोदशा बन गई है कि सजा देने से अपराध और अपराधी के प्रति हमारी जिम्मेदारी समाप्त हो गई और जो पीड़ित है उसे न्याय मिल गया। लेकिन क्या वाकई इस सजा से अपराध बंद होते हैं? क्या वह अपराधी आगे कभी अपराध नहीं करता? क्या इससे अन्य अपराधियों के अपराधों पर रोक लगती है। सच्चाई तो यह है कि अपराधियों की संख्या में इजाफा हो रहा है। अदालतों में क्रिमिनल केस के अंबार लगे हुए हैं। जेलों में अब और अपराधियों को रखने की जगह नहीं है। तब भी हम किसी नए तरीके से सोचने को तैयार नहीं हैं। ओशो ने इस स्थिति पर गहरा विचार किया है और उनकी सोच हमारी परंपरागत सोच से हटकर है। वे कहते हैं कि सजा देने की पूरी अवधारणा ही अमानवीय है। अपराधी को कारागृहों की बजाय मनोचिकित्सा के अस्पतालों की जरूरत है। एक तो अपराधी उसी समाज का एक हिस्सा है जिसमें हम जीते हैं। तो इस पर भी सोचना चाहिए कि यह समाज ऐसा क्यों है? इसे इतनी भारी संख्या में पुलिस, अदालत और वकीलों की जरूरत क्यों है? जिस समाज मे कारागृह छोटे पड़ रहे हैं,क्योंकि अपराधी बढ़ते जा रहे हैं,क्या उस समाज की मानसिक चिकित्सा करने की जरूरत नहीं है? ये अपराधी कहां से आते हैं? परिवार से। अगर फल जहरीला हुआ तो हम बीज की जांच करते हैं कि उसमें तो कोई खराबी नहीं है। फिर जब बच्चे हिंसक हो रहे हैं तो क्या मां-बाप की मानसिकता की जांच नहीं करनी चाहिए? इस पर गौर करना ही चाहिए।
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
|