कुछ ओर!
यह मेरी प्रथम रचना है....फोरम के सभी मित्रो के लिए!
मन हमारा जो भी कहे, मानसीकता कुछ ओर है।
कहेने का सच ओर, वास्तविकता कुछ ओर है।
मीलना भी जब चाहा, एक बहाना तैयार था,
हम भी जानतें थे, यह व्यस्तता कुछ ओर है।
प्रतीक्षा है प्रतिक्षण, एक क्षण तो मीलोगे,
तुम मूर्खता भले मानो, यह मूर्खता कुछ ओर है।
ईस अकेलेपन को यादों से से भर दिया है,
वह सुनापन अलग था, यह रिक्तता कुछ ओर है।
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