Re: इधर-उधर से
आचार्यत्व तथा प्रेम
(आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के वक्तव्य से)
मुझे आचार्य्य की पदवी मिली है. क्यों मिली है, मालूम नहीं. कब, किसने दी है, यह भी मुझे मालूम नहीं. मालूम सिर्फ इतना ही है कि मैं बहुधा-इस पदवी से विभूषित किया जाता हूं-
उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः.
संकल्प सरहस्यञच तमाचार्य्य प्रचक्षते.
यह लक्षण मुझ पर तो घटित होता नहीं; क्योंकि मैंने कभी किसी को इक्का एक भी नहीं पढ़ाया. शंकराचार्य्य, मध्वाचार्य्य सांख्याचार्य्य आदि के सदृश किसी आचार्य के चरणरजःकण की बराबरी मैं नहीं कर सकता. बनारस के संस्कृत-कॉलेज या किसी विश्वविद्यालय में भी मैंने कभी कदम नहीं रखा. फिर इस पदवी का मुस्तहक मैं कैसे हो गया? विचार करने पर, मेरी समझ में इसका एक-मात्र कारण मुझ पर कृपा करनेवाले सज्जनों का अनुग्रह ही जान पड़ता है. जो जिसका प्रेम-पात्र होता है उसे उसके दोष नहीं दिखाई देते. जहां दोष देख पड़ते हैं, वहां तो प्रेम का प्रवेश ही नहीं हो सकता. नगरों की बात जाने दीजिए, देहात तक में माता-पिता और गुरुजन अपने लूले, लंगडे, काने, अंधे, जन्मरोगी और महाकुरूप लड़कों का नाम श्यामसुन्दर, मदनमोहन, चारुचन्द्र और नयनसुख रखते हैं. जिनके कब्जे में अंगुल भर भी जमीन नहीं वे पृथ्वीपति और पृथ्वीपाल कहाते हैं. जिनके घर में टका नहीं वे करोड़ीमल कहे जाते हैं. मेरी आचार्य्य-पदवी भी कुछ-कुछ इस तरह की है. अतः इससे पदवीदाता जनों का जो भाव प्रकट होता है उसका अभिनंदन मैं हृदय से करता हूं. यह पदवी उनके प्रेम, उनके औदार्य्य, उनके वात्सल्य-भाव की सूचक है. अतएव प्रेमपात्र मैं अपने इन सभी उदाराशय प्रेमियों का ऋणी हूं. बात यह है कि-
वसन्ति हि प्रेम्णि गुणा न वस्तुनि
अर्थात गुणों का सबसे बड़ा आधार प्रेम होता है, वस्तु-विशेष नहीं. जो जिस पर कृपा करता है-जिसका प्रेम जिसपर होता है-वह उसे आचार्य्य क्या यदि जगद्गुरु समझ ले तो आश्चर्य की बात नहीं.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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