Re: इधर-उधर से
प्रेम परिभाषा में बंधता नहीं
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मस्तिष्क का काम है रहस्य को रहस्य न रहने दे, उसे सुस्पष्ट परिभाषा में बांध ले। मगर कुछ चीजें हैं जो परिभाषा में बंधती नहीं। प्रेम परिभाषा में बंधता नहीं। लाख करो उपाय, परिभाषा छोटी पड़ जाती है। व्याख्या में समाता नहीं। बड़े बड़े हार गए, सदियां बीत गईं, प्रेम के संबंध में कितनी बातें कही गईं और प्रेम के संबंध में एक भी बात कही नहीं जा सकी है। जो कहा गया, सब ओछा पड़ा। जो कहा गया, सब थोथा सिद्ध हुआ। प्रेम इतना बड़ा है, इतना विराट है कि यह आकाश भी छोटा है।
प्रेम के आकाश से यह आकाश छोटा है। ऐसे कितने ही आकाश उसमें समा जाएं। महावीर ने इस आकाश को अनंत कहा है, और आत्मा के आकाश को अनंतानंत। अगर अनंत को अनंत से गुणा कर दें। असंभव बात। क्योंकि अनंत का अर्थ ही हो गया कि उसकी कोई सीमा नहीं, अब उसका गुणा कैसे करोगे? कोई आंकड़ा नहीं। लेकिन महावीर ने कहा, अगर यह हो सके कि अनंत को हम अनंत से गुणा कर सकें, तो अनंतानंत, तो हमारे भीतर के आकाश की थोड़ीसी रूपरेखा स्पष्ट होगी।
लेकिन मन हर चीज को समझ कर, जान कर स्पष्ट कर लेना चाहता है। क्यों? मस्तिष्क की यह आकांक्षा क्यों है?
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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