Re: !! रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानियाँ!!
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'दूसरी रात को फिर नाटक होने वाला था, नौकर ने आज्ञा चाही तो चेतावनी दे दी कि बाहर का द्वार खुला रहे।
''यह कैसे हो सकता है। विभिन्न स्वभाव के व्यक्ति बाहर से मेले में आये हुए हैं, दुर्घटना का सन्देह है।' नौकर ने कहा।
'' 'नहीं, तुम जरूर खुला रखो।'
'' 'तो फिर मैं मेले नहीं जाऊंगा।'
'' 'तुम अवश्य जाओ।'
''नौकर आश्चर्य में था कि आखिर उनका आशय क्या है?
''जब संध्या हो गई और चहुंओर अन्धकार छा गया तो फणीभूषण उस खिड़की में आ बैठा। आकाश पर गहरा कोहरा छाया हुआ था, घनघोर घटाएं ऐसी तुली खड़ी थीं कि जल-थल एक कर दें, चहुंओर शून्यता का राज्य था। ऐसा मालूम होता था कि सारे संसार का वायुमण्डल मौन भाव से किसी मधुर ध्वनि को सुनने के लिए अपने कान लगाये हुए है। मेढकों की निरन्तर टर्र-टर्र और ग्रामीण स्वांगों की कम्पित ध्वनि भी उस शून्यता में बाधक न मालूम होती थी।
''आधी रात के लगभग फिर सम्पूर्ण शोर, चहल-पहल रात्रि के मौन में सोने लगा। रात ने अपने काले वस्त्रों पर एक और काला आवरण डाल लिया। पहली रात की भांति फणीभूषण को फिर वही आवाज सुनाई दी। उसने नदी की ओर दृष्टि उठाकर भी न देखा। ईश्वर न करे कि कोई अनाधिकार-चेष्टा द्वारा समय से पूर्व ही उसकी आकांक्षाओं का खून कर दे। वह मूर्तिवत बैठा रहा जैसे किसी ने लकड़ी की प्रतिमा को बनाकर सरेश से कुर्सी पर चिपका दिया हो।
''पंजों की आहट सुनसान घाट की सीढ़ियों की ओर से आकर मुख्य द्वार में प्रविष्ट हुई। चक्कर वाले जीने की सीढ़ियों पर चढ़कर अन्दर के कमरे की ओर बढ़ी। लहरों की प्रतिस्पर्धा में अपने नौका को देखा होगा। इसी प्रकार फणीभूषण का हृदय बल्लियों उछलने लगा। वह आवाज बरामदे से होती हुई शयनकक्ष की ओर आई और ठीक द्वार पर आकर ठहर गई। अब केवल द्वार-प्रवेश करना शेष था।
फणीभूषण की आकांक्षाएं मचल उठीं। संतोष का आंचल हाथ से जाता रहा, वह सहसा कुर्सी से उछल पड़ा। एक दु:खभरी चीख-'मनी' उसके मुख से निकली, किन्तु दु:ख है कि उसके पश्चात् मेंढकों की आवाज और वर्षा की बड़ी-बड़ी बूंदों की तड़तड़ के सिवा और कुछ न था।
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."
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