Re: परिचय (१९७२)
लेकिन आज कल जैसे ट्रेलर, प्रोमो और फिल्म मेकिंग के सीन्स आधी फिल्म तो दिखा ही जाते है, जिस से दर्शक की आधी जिज्ञासा तो पुरी ही हो जाती है। आधी फिल्म बे मतलब (फिल्म की कहानी में जबरन डाले हुए ) गानों से भरी हुई होती है। एसे ही पैसों के भुखे फिल्म मेकर्सने नया श्लोक/आयात बोलिवुड को दी है...एन्टरटेईन्मेन्ट-एन्टरटेईन्मेन्ट-एन्टरटेईन्मेन्ट!
अगर दादा साहब फाळके या राज कपूर ने भी एसा ही सोचा होता तो?
यह लोग करोडों कमाना चाहते है। ये कहते है की हम ३००० लोगों को रोज़ी रोटी दे रहें है। लेकिन करोडो लोगों को बकवास फिल्म दे रहें है उसका क्या? जो लोग बोलिवुड में कामियाब नहीं हो सके उनका क्या? जो कामियाब लोग बुढे हो गए है उनका क्या? उनके बच्चों का क्या?
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