Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
शाम को तन्हा, उदास टहलते हुए अपने को इस स्थिति के लिए तैयार कर रहा था। मन का एक कोना यह कह रहा कि यह सब तो होना ही है। गांव में प्रेम का मतलब ही अलग होता है और दर्जनों किस्से इसको लेकर चलती रहती है। लोगों की नजर में प्रेम, प्रेम नहीं, एक दूसरे से फंसा होना है, बस। शरीर से इतर प्रेम की कोई परिभाषा आज तक नहीं गढ़ी गई थी। कुछ लोगों ने हिमाकत की भी थी पर गांव और समाज से लड़कर वह हार गया। पर अब मेरी हालत मेरे बस में नहीं रह गई थी और लगता था जैसे सबकुछ किसी से प्रेरित होकर हो रहा है।
भले ही मेरा प्रतिरोध बढ़ रहा था पर इस सबसे मेरी प्रतिबद्धता भी बढ़ती जा रही थी। एक जिद्द और जुनून अंदर घर बना चुका था। अब सोंचने समझने की क्षमता जैसे विलुप्त होती जा रही हो और कोई हो जो हाथ पकड़ किसी ओर ले जा रहा हो। ऐसा ही कुछ सोंचता हुआ अर्न्तद्वंद में जा रहा था कि रास्ते में सहपाठी राम मिल गया। कुछ दिन पहले भी उसने मुझे मेरे कैरियर को लेकर बहुत समझाया था और दिल की बात उससे कर भी लेता था। आज फिर वह मिल गया था पर उससे कन्नी काट कर मैं निकलना चाहता था कि उसने टोक दिया।
‘‘काहे, लगो है हमरो से गोसाल हो की, कन्नी काट के निकल रहलो हें।’’
‘‘नै ऐसन कोई बात नै है भाई, तोरा से कैसन गोस्सा, गोस्सा तो अपन तकदीर से है। साला बनल बनाबल खेल बिगड़ जा हे।’’
‘‘कौची बन बनाबल, भाई साहब इ दुनिया है, यहां ऐसने चलो है, काहे कि चिंता।’’
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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